श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
तृतीय अध्याय
अन्नाद्भवति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥
सारे प्राणी अन्न पर आश्रित हैं, जो वर्षा से उत्पन्न होता है। वर्षा यज्ञ सम्पन्न करने से होती है और यज्ञ नियत कर्मों से उत्पन्न होता है।
भावानुवाद- श्रीभगवान कहते हैं- “संसार चक्र की प्रवृत्ति के कारणस्वरूप होने पर भी यज्ञ प्रयोजनीय है। अन्न से जीव या प्राणिगण उत्पन्न होते हैं, अतः जीवों का कारण अन्न है, क्योंकि अन्न ही रक्त में परिवर्तित होता है और परिवर्तित होकर शुक्राणु बनता है, जिससे कि जीवों का शरीर बनता है। उस अन्न का कारण मेघ है, क्योंकि वृष्टि से अन्न होता है। उस मेघ का कारण यज्ञ है, क्योंकि लोगों के द्वारा किये गये यज्ञ से ही समुचित वृष्टि देने वाले मेघ का सृजन होता है। उस यज्ञ का कारण कर्म है, क्योंकि ऋत्विक् (यज्ञपुरोहित) और यजमान् के द्वारा अनुष्ठित कर्म से ही यज्ञ सिद्ध होता है।।”14।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-
ऋत्विक्-जो ऋतुओं में यज्ञ करते हैं, उन यज्ञ पुरोहितों को ऋत्विक कहते हैं-
‘आग्नेधेयं पाकयज्ञानग्निष्टोमादिकान्मखान्।
यः करोति वृतो यस्य स तस्यर्त्विगिहोच्यते।।’
यज्ञकार्य में मुख्य पुरोहित चार होते हैं-होता, अध्वर्यु, ब्रह्मा और उद्गाता।।14।।
|