यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्ददशम अध्याय
एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः। जो पुरुष योग की और मेरी उपर्युक्त विभूतियों को साक्षात्कार के साथ जानता है, वह स्थिर ध्यानयोग द्वारा मुझमें एकीभाव से स्थित होता है। इसमें कुछ भी संशय नहीं है। जिस प्रकार वायुरहित स्थान में रखे दीपक की लौ सीधी जाती है, कम्पन नहीं होता, योगी के जीते हुए चित्त की यही परिभाषा है। प्रस्तुत श्लोक में ‘अवकम्पेन’ शब्द इसी आशय की ओर संकेत करता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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