विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दचतुर्दश अध्यायपिछले अनेक अध्यायों में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने ज्ञान का स्वरूप स्पष्ट किया। अध्याय 4/19 में उन्होंने बताया कि जिस पुरुष द्वारा सम्पूर्णता से आरम्भ किया हुआ नियत कर्म का आचरण क्रमशः उत्थान होते-होते इतना सूक्ष्म हो गया कि कामना और संकल्प का सर्वथा शमन हो गया, उस समय जिसे वह जानना चाहता है उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति हो जाती है, उसी अनुभूति का नाम ज्ञान है। तेरहवें अध्याय में ज्ञान को परिभाषित किया, ‘अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।’- आत्मज्ञान में एकरस स्थिति और तत्त्व के अर्थस्वरूप परमात्मा का प्रत्यक्ष दर्शन ज्ञान है। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के भेद को विदित कर लेने के साथ ही ज्ञान का अर्थ शास्त्रतार्थ नहीं, शास्त्रों को याद कर लेना ही ज्ञान नहीं है। अभ्यास की वह अवस्था ज्ञान है, जहाँ वह तत्त्व विदित होता है। परमात्मा के साक्षात्कार के साथ मिलनेवाली अनुभूति का नाम ज्ञान है, इसके विपरीत सब कुछ अज्ञान है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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