यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 473

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

दशम अध्याय


गत अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गुप्त राजविद्या का चित्रण किया, जो निश्चित ही कल्याण करती है। इस अध्याय में उनका कथन है-महाबाहु अर्जुन! मेरे परम रहस्ययुक्त वचन को फिर भी सुन। यहाँ उसी को दूसरी बार कहने की आवश्यकता क्या है? वस्तुतः साधक को पूर्तिपर्यन्त खतरा है। ज्यों-ज्यों वह स्वरूप में ढलता जाता है, प्रकृति के आवरण सूक्ष्म होते जाते हैं, नये-नये दृश्य आते हैं। उसकी जानकारी महापुरुष ही देते रहते हैं। वह नहीं जानता। यदि वे मार्गदर्शन करना बन्द कर दें तो साधक स्वरूप की उपलब्धि से वंचित रहेगा। जब तक वह स्वरूप से दूर है, तब तक सिद्ध है कि प्रकृति का कोई-न-कोई आवरण बना है। फिसलने-लड़खड़ाने की सम्भावना बनी रहती है। अर्जुन शरणागत शिष्य है। उसने कहा-‘शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।’- भगवन्! मैं आपका शिष्य हूँ, आपकी शरण हूँ, मुझे सँभालिये। अतः उसके हित की कामना से योगेश्वर श्रीकृष्ण पुनः बोले-

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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