यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
पंचम अध्याय
अध्याय तीन में अर्जुन ने प्रश्न रखा कि- भगवन्! जब ज्ञानयोग आपको श्रेष्ठ मान्य है, तो आप मुझे भयंकर कर्मों में क्यों लगाते हैं? अर्जुन को निष्काम कर्मयोग की अपेक्षा ज्ञानयोग कुछ सरल प्रतीत हुआ लगता है; क्योंकि ज्ञानयोग में हारने पर देवत्व और विजय में महामहिम स्थिति, दोनों ही दशाओं में लाभ ही लाभ हुआ। जब तक अर्जुन ने भली प्रकार समझ लिया है कि दोनों ही मार्गों में कर्म तो करना ही पड़ेगा (योगेश्वर उसे संशयरहित होकर तत्त्वदर्शी महापुरुष की शरण लेने के लिये भी प्रेरित करते हैं; क्योंकि समझने के लिये वही एक स्थान है।) अतः दोनों मार्गों में से एक चुनने से पूर्व उसने निवेदन किया-
अर्जुन उवाच
सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्।।1।।
हे श्रीकृष्ण! आप कभी संन्यास-माध्यम से किये जानेवाले कर्म की और कभी निष्काम-दृष्टि से किये जानेवाले कर्म की प्रशंसा करते हैं। इन दोनों में से एक, जो भली प्रकार आपका निश्चय किया हुआ हो, जो परमकल्याणकारी हो उसे मेरे लिये कहिये। कहीं जाने के लिये आपको दो मार्ग बातये जायँ तो आप सुविधाजनक मार्ग अवश्य पूछेंगे। यदि नहीं तो आप जाने वाले नहीं हैं। इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा-
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