यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दउपशमप्रायः टीकाओं में लोग नयी बात खोजते हैं; किन्तु वस्तुतः सत्य तो सत्य है। वह न नया होता है और न पुराना पड़ता है। नयी बातें तो अखबारों में छपती रहती हैं, जो मरती-उभरती घटनाएँ हैं। सत्य अपरिवर्तनशील है तो कोई दूसरा कहे भी क्या? यदि कहता है तो उसने पाया नहीं। प्रत्येक महापुरुष यदि चलकर उस लक्ष्य तक पहुँच गया तो एक ही बात कहेगा। वह समाज के बीच दरार नहीं डाल सकता। यदि डालता है तो सिद्ध है उसने पाया नहीं। श्रीकृष्ण भी उसी सत्य को कहते हैं जो पूर्व मनीषियों ने देखा था, पाया था और भविष्य में होने वाले महापुरुष भी यदि पाते हैं तो यही कहेंगे। महापुरुष और उनकी कार्य-प्रणाली-महापुरुष दुनिया में सत्य के नाम पर फैली और सत्य-सी प्रतीत होनेवाली कुरीतियों का शमन करके कल्याण का पथ प्रशस्त कर देते हैं। यह पथ भी दुनिया में पहले से रहता है; किन्तु उसी के समानान्तर, उसी की तरह भासनेवाले अनेक पथ प्रचलित हो जाते हैं। उनमें से सत्य को छाँटना कठिन हो जाता है कि वस्तुतः सत्य क्या है। महापुरुष सत्यस्थित होने से उनमें सत्य की पहचान करते हैं, उसे निश्चित करते हैं और उस सत्य की ओर अभिमुख होने के लिये समाज को प्रेरित करते हैं। यही राम ने किया, यही महावीर ने किया, यही महात्मा बुद्ध ने किया, यही ईसा ने किया और यही प्रयास मुहम्म ने किया। कबीर, गुरुनानक इत्यादि सबने यही किया। महापुरुष जब दुनिया से उठ जाता है, तो पीछे के लोग उसके बताये मार्ग पर न चलकर उसके जन्मस्थल, मृत्युस्थल और उन स्थलों को पूजने लगते हैं, जहाँ वे गये थे। क्रमशः वे उनकी मूर्ति बनाकर पूजने लगते हैं। यद्यपि आरम्भ में वे उनकी स्मृति ही सँजोते हैं किन्तु कालान्तर में भ्रम में पड़ जाते हैं और वही भ्रम रूढ़ि का रूप ले लेता है।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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