यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 345

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

सप्तम अध्याय

गत अध्यायों में गीता के मुख्य-मुख्य प्रायः सभी प्रश्न पूर्ण हो गये हैं। निष्काम कर्मयोग, ज्ञानयोग, कर्म तथा यज्ञ का स्वरूप और उसकी विधि, योग का वास्तविक स्वरूप और उसका परिणाम तथा अवतार वर्णसंकर, सनातन, आत्मस्थित महापुरुष के लिये भी लोकहितार्थ कर्म करने पर बल, युद्ध इत्यादि पर विशद चर्चा की गयी। अगले अध्यायों में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इन्हीं से सन्दर्भित अनेक पूरक प्रश्नों को लिया है, जिनका समाधान तथा अनुष्ठान आराधना में सहायक सिद्ध होगा।

छठें अध्याय के अन्तिम श्लोक में योगेश्वर ने यह कहकर प्रश्न का स्वयं बीजारोपण कर दिया कि जो योगी ‘मद्गतेनान्तरात्मना’-मुझमें अच्छी प्रकार स्थित अन्तःकरणवाला है, उसे मै। अतिशय श्रेष्ठ योगी मानता हूँ। परमात्मा में अच्छी प्रकार स्थिति क्या है? बहुत से योगी परमात्मा को प्राप्त तो होते हैं फिर भी कहीं कोई कमी उन्हें खटकती है। लेशमात्र भी कसर न रह जाय, ऐसी अवस्था कब आयेगी? सम्पूर्णता से परमात्मा की जानकारी कब आयेगी? कब होती है? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं-


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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