यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दउपशमयोेगेश्वर श्रीकृष्ण ने भी तत्सामयिक समाज में सत्य के नाम पर पनपे हुए रीति-रिवाज का खण्डन करके समाज को प्रशस्त पथ खड़ा कर दिया। अध्याय 2/16 में उन्होंने कहा- अर्जुन! असत् वस्तु का तो अस्तित्व नहीं और सत् का तीनों कालों में अभाव नहीं है। भगवान होने के कारण यह मैं अपनी ओर से नहीं कह रहा हूँ बल्कि इनका अन्तर तत्वदर्शियों ने देखा; और वही मैं कहने जा रहा हूँ। तेरहवें अध्याय में उन्होंने क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का वर्णन उसी प्रकार किया, जो ‘़ऋषिभिर्बहुधागीतम्’-ऋषियों द्वारा प्रायः गाया जा चुका था। अठारहवें अध्याय में त्याग और सन्यास का तत्व बताते हुए उन्होंने चार मतों में से एक का चयन किया और उसे अपना समर्थन दिया। सन्यास-कृष्णकाल में अग्नि को न छनेवाले तथा चिन्तन का भी त्याग करके अपने को योगी, सन्यासी कहले वालों का सम्प्रदाय भी पनप रहा था। इसका खण्डन करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि ज्ञानमार्ग तथा भक्तिमार्ग, दोनों में से किसी भी मार्ग के अनुसार कर्म को त्यागने का विधान नहीं है, कर्म तो करना ही होगा। कर्म करते-करते साधना इतनी सूक्ष्म हो जाती है कि सर्वसंकल्पों का अभाव हो जाता है, वह पूर्ण सन्यास है। बीच रास्ते में सन्यास नाम की कोई वस्तु नहीं है। केवल क्रियाओं को त्याग देने से तथा अग्नि न छूने से न तो कोई सन्यासी होता है और न योगी। (जिसे अध्याय दो, तीन, पाँच, छः और विशेषकर अठारह में देखा जा सकता है।) |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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