यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्ददशम अध्याय
महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा। सप्तर्षि अर्थात् योग की सात क्रमिक भूमिकाएँ (शुभेच्छा, सुविचारणा, तनुमानसी, सत्वापत्ति, असंसक्ति, पदार्थभावना और तुर्यगा) तथा इनके अनुरूप अन्तःकरण चतुष्टय (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार), इसके अनुरूप मन जो मेरे में भाव वाला है- यह सब मेरे ही संकल्प से (मेरी प्राप्ति के संकल्प से तथा जो मेरी ही प्रेरणा से होते हैं। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं) उत्पन्न होते हैं। इस संसार में ये (सम्पूर्ण दैवी सम्पद्) इन्हीं की प्रजा है। क्योंकि सप्त भूमिकाओं के संचार में ‘दैवी सम्पद्’ ही है, अन्य नहीं।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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