यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 477

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

दशम अध्याय


महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः।।6।।

सप्तर्षि अर्थात् योग की सात क्रमिक भूमिकाएँ (शुभेच्छा, सुविचारणा, तनुमानसी, सत्वापत्ति, असंसक्ति, पदार्थभावना और तुर्यगा) तथा इनके अनुरूप अन्तःकरण चतुष्टय (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार), इसके अनुरूप मन जो मेरे में भाव वाला है- यह सब मेरे ही संकल्प से (मेरी प्राप्ति के संकल्प से तथा जो मेरी ही प्रेरणा से होते हैं। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं) उत्पन्न होते हैं। इस संसार में ये (सम्पूर्ण दैवी सम्पद्) इन्हीं की प्रजा है। क्योंकि सप्त भूमिकाओं के संचार में ‘दैवी सम्पद्’ ही है, अन्य नहीं।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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