यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्ददशम अध्याय
बुद्धिज्र्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः। अर्जुन! निश्चयात्मिका बुद्धि, साक्षात्कार सहित जानकारी, लक्ष्य में विवेकपूर्वक प्रवृत्ति, क्षमा, शाश्वत सत्य, इन्द्रियों का दमन, मन का शमन, अन्तः करण की प्रसन्नता, चिन्तन-पथ के कष्ट, परमात्मा की जागृति, स्वरूप के प्राप्तिकाल में सर्वस्व का विलय, इष्ट के प्रति अनुशासनात्मक भय और प्रकृति से निर्भयता तथा- अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः। अहिंसा अर्थात् अपने आत्मा को अधोगति में न पहुँचाने का आचरण, समता-जिसमें विषमता न हो, सन्तोष, तप-मनसहित इन्द्रियों को लक्ष्य के अनुरूप तपाना, दान अर्थात् सर्वस्व का समर्पण, भगवत्पथ में मान-अपमान का सहन-इस प्रकार प्राणियों के उपर्युक्त भाव मुझसे ही होते हैं। ये सभी भाव दैवी चिन्तन-पद्धति के लक्षण हैं। इनका अभाव ही आसुरी सम्पद् है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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