यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 395

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

अष्टम अध्याय

‘पूज्य महाराज जी’-“मेरा रूप देखें और श्रद्धानुसार कोई भी दो-ढाई अक्षर का नाम-ऊँ, ‘राम’, ‘शिव’ में से कोई एक लें, उसका चिन्तन करें और उसी के अर्थस्वरूप इष्ट के स्वरूप का ध्यान करें।” ध्यान सद्गुरु का ही किया जाता है। आप राम, कृष्ण अथवा ‘वीतराग विषयं वा चित्तम्।’-वीतराग महात्मओं अथवा ‘यथाभिमतध्यानाद्धा।’ (पातंजल योग., 10/37, 39) अभिमत अर्थात् योग के अभिमत, अनुकूल किसी का भी स्वरूप पकड़े, वे अनुभव में आपको मिलेंगे और आपके समकालीन किसी सद्गुरु की ओर बढ़ा देंगे, जिनके मार्गदर्शन से आप शनैः-शनैः प्रकृति के क्षेत्र से पार होते जायेंगे। मैं भी प्रारम्भ में एक देवता (कृष्ण के विराट् रूप) के चित्र का ध्यान करता था; किन्तु पूज्य महाराज जी के अनुभवी प्रवेश के साथ वह शान्त हो गया।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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