विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दतृतीय अध्यायइष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः। यज्ञ द्वारा संवर्धित देवता (दैवी सम्पद्) आपको ‘इष्टान् भोगान् हि दास्यनते’-इष्ट अर्थात् आराध्य-सम्बन्धी भोगों को देंगे, अन्य कुछ नहीं। ‘तैः दत्तान्’- वे ही एकमात्र देनेवाले हैं। इष्ट को पाने का अन्य कोई विकल्प नहीं है। इन दैवी गुणों को बिना बढ़ाये जो इस स्थिति का भोग करता है वह निश्चय ही चोर है। जब उसने पाया ही नहीं तो भोगेगा क्या? किन्तु कहता अवश्य है कि हम तो पूर्ण हैं, तत्त्वदर्शी हैं। ऐसी डींग मारनेवाला इस पथ से मुँह छिपानेवाला है। वह निश्चय ही चोर है, न कि प्राप्तिवाला। किन्तु पानेवाले क्या पाते हैं?- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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