यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 140

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

तृतीय अध्याय

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।11।।

इस यज्ञ द्वारा देवताओं की उन्नति करो अर्थात् दैवी सम्पद् की वृद्धि करो। वे देवता लोग तुम लोगों की उन्नति करेंगे। इस प्रकार आपस में वृद्धि करते हुए परमश्रेय, जिसके बाद कुछ भी पाना शेष न रहे, ऐसे परमकल्याण को प्राप्त हो जाओ। ज्यों-ज्यों हम यज्ञ में प्रवेश करेंगे, (आगे यज्ञ का अर्थ होगा-आराधना की विधि) त्यों-त्यों हृदय-देश में दैवी सम्पद् अर्जित होती चली जायेगी। परमदेव एकमात्र परमात्मा है, उस परमदेव में प्रवेश दिला देनेवाली जो सम्पद् है, अन्तःकरण की जो सजातीय प्रवृत्ति है उसी को ‘दैवी सम्पद’ कहते हैं। कहते हैं। वह परमदेव को सम्भव करती है इसलिये दैवी सम्पद् कही जाती है, न कि बाहरी देवता-पत्थर-पानी, जैसा कि लोग कल्पना कर लेते हैं। योगेश्वर श्रीकृष्ण के शब्दों में उनका कोई अस्तित्व नहीं है। आगे कहते हैं-


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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