विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दतृतीय अध्यायदेवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः। इस यज्ञ द्वारा देवताओं की उन्नति करो अर्थात् दैवी सम्पद् की वृद्धि करो। वे देवता लोग तुम लोगों की उन्नति करेंगे। इस प्रकार आपस में वृद्धि करते हुए परमश्रेय, जिसके बाद कुछ भी पाना शेष न रहे, ऐसे परमकल्याण को प्राप्त हो जाओ। ज्यों-ज्यों हम यज्ञ में प्रवेश करेंगे, (आगे यज्ञ का अर्थ होगा-आराधना की विधि) त्यों-त्यों हृदय-देश में दैवी सम्पद् अर्जित होती चली जायेगी। परमदेव एकमात्र परमात्मा है, उस परमदेव में प्रवेश दिला देनेवाली जो सम्पद् है, अन्तःकरण की जो सजातीय प्रवृत्ति है उसी को ‘दैवी सम्पद’ कहते हैं। कहते हैं। वह परमदेव को सम्भव करती है इसलिये दैवी सम्पद् कही जाती है, न कि बाहरी देवता-पत्थर-पानी, जैसा कि लोग कल्पना कर लेते हैं। योगेश्वर श्रीकृष्ण के शब्दों में उनका कोई अस्तित्व नहीं है। आगे कहते हैं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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