विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दतृतीय अध्याययज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः। यज्ञ से बचे हुए अन्न को खानेवाले सन्तजन सब पापों से मुक्त हो जाते हैं। दैवी सम्पद् की वृद्धि करते-करते परिणाम में प्राप्तिकाल की पूर्तिकाल है। जब यज्ञ पूर्ण हो गया तो शेष बचा हुआ ब्रह्म ही अन्न है। इसी को श्रीकृष्ण ने दूसरे शब्दों में कहा-‘यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।’-यज्ञ जिसकी सृष्टि करता है उस अशन का पान करनेवाला ब्रह्म में प्रविष्ट हो जाता है। यहाँ वे कहते हैं कि यज्ञ से शेष बचे हुए अशन का (ब्रह्मपीयूष का) पान करनेवाला सब पापों से छुटकारा पा जाता है। सन्तजन तो छूट जाते हैं, किन्तु पापी लोग मोह के माध्यम से उत्पन्न शरीरों के लिये पचते हैं। वे पाप खाते हैं। उन्होंने भजन भी किया, आराधना को समझा, अग्रसर भी हुए, किन्तु बदले में एक मीठी-सी चाह पैदा हो गयी कि ‘आत्मकारणात्’- शरीर के लिये और शरीर के सम्बन्धों को लेकर कुछ मिले। उसे मिल तो जायेगा, किन्तु उतने भोग के पश्चात् वह अपने को वहीं खड़ा पायेगा, जहाँ से चलना प्रारम्भ किया था। इससे बड़ी क्षति क्या होगी? जब शरीर ही नश्वर है तो इसके सुख-भोग कब तक साथ देंगे? वे आराधना तो करते हैं, किन्तु बदले में पाप ही खाते हैं।-‘पलटि सुधा ते सठ विष लेहीं।’ (रामचरितमानस, 7/43/2) वह नष्ट तो नहीं होगा, किन्तु आगे नहीं बढ़ेगा। इसलिये श्रीकृष्ण निष्काम भाव से कर्म (भजन) करने पर बल देते हैं। अभी तक श्रीकृष्ण ने बताया कि यज्ञ परमश्रेय देता है और उसकी रचना महापुरुष द्वारा होती है। किन्तु वे महापुरुष प्रजा की रचना में क्यों प्रवृत्त होते है? इस पर कहते हैं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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