विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दतृतीय अध्याय
कर्म की यह परिभाषा गीता को समझने की कुंजी है। यज्ञ के अतिरिक्त दुनिया में लोग कुछ-न-कुछ करते ही रहते हैं। कोई खेती करता है तो कोई व्यापार, कोई पदासीन है तो कोई सेवक, कोई अपने को बुद्धिजीवी कहता है तो कोई श्रमजीव, कोई समाज-सेवा को कर्म मानता है तो कोई देश-सेवा को और इन्हीं कर्मों में लोग सकाम और निष्काम कर्म की भूमिका भी बनाये पड़े हैं। किन्तु श्रीकृष्ण कहते हैं, ये कर्म नहीं हैं। ‘अन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः’- यज्ञ की प्रक्रिया के सिवाय जो कुछ भी किया जाता है वह इसी लोक का बन्धनकारी कर्म है, न कि मोक्षद कर्म। वस्तुतः यज्ञ कि प्रक्रिया ही कर्म है। अब यज्ञ न बताकर पहले यह बतो हैं कि यज्ञ आया कहाँ से?-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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