यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 135

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

तृतीय अध्याय

अब हम समझ गये कि यज्ञ कि प्रक्रिया ही कर्म है; किन्तु यहाँ पुनः एक नवीन प्रश्न उत्पन्न हो गया कि वह यज्ञ क्या है, जिसे किया जाय? इसके लिये पहले यज्ञ को न बताकर श्रीकृष्ण बताते हैं कि यज्ञ आया कहाँ से? वह देता क्या है? उसकी विशेषताओं पर प्रकाश डाला और चौथे अध्याय में जाकर स्पष्ट किया कि यज्ञ क्या है, जिसे हम कार्यरूप दें और हमसे कर्म होने लगे। योगेश्वर श्रीकृष्ण की शैली से स्पष्ट है कि जिस वस्तु का चित्रण करना है, वे पहले उसकी विशेषताओं का चित्रण करते हैं जिससे श्रऋद्धा जागृत हो, तत्पश्चात् वे उसमें बरती जाने वाली सावधानियों पर प्रकाश डालते हैं और अन्त में मुख्य सिद्धान्त प्रतिपादित करते हैं।

स्मरण रहे कि यहाँ पर श्रीकृष्ण ने कर्म के दूसरे अंग पर प्रकाश डाला कि कर्म एक निर्धारित क्रिया है। जो कुछ किया जाता है, वह कर्म नहीं है।

अध्याय दो में पहली बार कर्म का नाम लिया, उसकी विशेषताओं पर बल दिया, उसमें बरती जाने वाली सावधानियों पर प्रकाश डाला, लेकिन यह नहीं बताया कि कर्म क्या है? यहाँ अध्याय तीन में बताया कि कोई बगैर कर्म किये नहीं रहता। प्रकृति से पराधीन होकर मनुष्य कर्म करता है। इसके बावजूद भी जो लोग इन्द्रियों को हठ से रोककर मन से विषयों का चिन्तन करते हैं वे दम्भी हैं-दम्भ का आचरण करनेवाले हैं। इसलिये अर्जुन! मन से इन्द्रियों को समेटकर तू कर्म कर। किन्तु प्रश्न ज्यों-का-त्यों है कि कौन-सा कर्म करें? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन! तू निर्धारित किये हुए कर्म को कर।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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