यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 137

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

तृतीय अध्याय

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।10।।

प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञसहित प्रजा को रचकर कहा कि इय यज्ञ द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ। यह यज्ञ तुमलोगों की ‘इष्टकामधुक्’- जिसमें अनिष्ट न हो, विनाशरहित इष्ट-सम्बन्धी कामना की पूर्ति करेगा।

यज्ञसहित प्रजा को किसने रचा? प्रजापति ब्रह्मा ने। ब्रह्मा कौन? क्या चार मुख और आठ आँखों वाला देवता, जैसा कि प्रचलित है? नहीं, श्रीकृष्ण के अनुसार देवता नाम की कोई अलग सत्ता है ही नहीं। फिर प्रजापति कौन है? वस्तुतः जिसने प्रजा के मूल उद्गम परमात्मा में प्रवेश पा लिया है, वह महापुरुष प्रजापति है। उसकी बुद्धि ही ब्रह्मा है- ‘अहंकार सिव बुद्धि अज, मन ससि चित्त महान।’[1] उस समय बुद्धि यन्त्रमात्र होती है। उस पुरुष की वाणी में परमात्मा ही बोलता है।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. रामचरितमानस, 6/15 क

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यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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