विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दतृतीय अध्याय
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्। इतने पर भी विशेष रूप से मूढ़ लोग, जो कर्मेन्द्रियों को हठ से रोककर इन्द्रियों के भोगों का मन से स्मरण करते रहते हैं वे मिथ्याचारी हैं, पाखण्डी हैं, न कि ज्ञानी। सिद्ध है कि कृष्णकाल में भी ऐसी रूढ़िया थीं। लोग करने योग्य क्रिया को छोड़कर इन्द्रियों को हठ से रोककर बैठ जाते थे और कहने लगते थे कि मैं ज्ञानी हूँ, पूर्ण हूँ। किन्तु श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे धूर्त हैं। ज्ञानमार्ग अच्छा लगे या निष्काम कर्मयोग, दोनों ही मार्गों में कर्म तो करना ही पड़ेगा। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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