यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 129

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

तृतीय अध्याय


न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैगुणैः।।5।।

कोई भी पुरुष किसी भी काल में क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता; क्योंकि सभी पुरुष प्रकृति से उत्पन्न हुए गुणों द्वारा विवश होकर कर्म करते हैं। प्रकृति और प्रकृति से उत्पन्न गुण जब तक जीवित हैं, तब तक कोई भी पुरुष कर्म किये बिना रह ही नहीं सकता।

अध्याय चार के तैंतीसवें और सैंतीसवे श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं कि यावन्मात्र कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं। ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्म कर देती है। यहाँ वे कहते हैं कि कर्म किये बिना कोई रहता ही नहीं। अन्ततः वे महापुरुष कहते क्या हैं? उनका आशय है कि यज्ञ करते-करते तीनों गुणों से अतीत हो जाने पर मन के विलय और साक्षात्कार के साथ यज्ञ का परिणाम निकल आने पर कर्म शेष हो जाते हैं। उस निर्धारित क्रिया की पूर्णता से पहले कर्म मिटते नहीं, प्रकृति पिण्ड नहीं छोड़ती।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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