विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दतृतीय अध्याय
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्। कोई भी पुरुष किसी भी काल में क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता; क्योंकि सभी पुरुष प्रकृति से उत्पन्न हुए गुणों द्वारा विवश होकर कर्म करते हैं। प्रकृति और प्रकृति से उत्पन्न गुण जब तक जीवित हैं, तब तक कोई भी पुरुष कर्म किये बिना रह ही नहीं सकता। अध्याय चार के तैंतीसवें और सैंतीसवे श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं कि यावन्मात्र कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं। ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्म कर देती है। यहाँ वे कहते हैं कि कर्म किये बिना कोई रहता ही नहीं। अन्ततः वे महापुरुष कहते क्या हैं? उनका आशय है कि यज्ञ करते-करते तीनों गुणों से अतीत हो जाने पर मन के विलय और साक्षात्कार के साथ यज्ञ का परिणाम निकल आने पर कर्म शेष हो जाते हैं। उस निर्धारित क्रिया की पूर्णता से पहले कर्म मिटते नहीं, प्रकृति पिण्ड नहीं छोड़ती। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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