विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दतृतीय अध्याय
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके, जब मन में भी वासनाओं का स्फुरण न हो सर्वथा अनासक्त हुआ कर्मेन्द्रियों से कर्मयोग का आचरण करता है, वह श्रेष्ठ है। ठीक है, समझ में आया कि कर्म का आचरण करें; किन्तु यह प्रश्न खड़ा होता है कि कौन-सा कर्म करें? इस पर कहते हैं- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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