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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण का माहात्म्य कथन, भीष्म की प्रतिज्ञा-रक्षा के लिये पुन: भगवान् का प्रतिज्ञा भंग, भीष्म का रण में पतनश्रीकृष्ण ने कहा- 'पितामह! तुम मेरे सच्चे भक्त हो। तुमने मेरी इच्छा पूर्ण करने के लिये अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी। तुम्हारी प्रतिज्ञा भीष्म प्रतिज्ञा के नाम से प्रसिद्ध है, तुमने अब तक जो प्रतिज्ञा की है वह कभी नहीं तोड़ी है। आज तुमने मेरे लिये अपनी प्रतिज्ञा का परित्याग करके अपनी सर्वोत्कृष्ट वस्तु मुझे दान की है। मैं तुम्हारा चिरकृतज्ञ-चिरऋणी रहूँगा। 'भगवान् मेरे चिरऋणी रहेंगे' यह सुनकर भीष्म विह्ल हो गये। वे बहुत देर तक भगवान् की कृपा के अनन्त समुद्र में डूबते-उतराते रहे। उन्होंने होश आने पर कहा-'अच्छा भगवन्! पाण्डवों की तो रक्षा हुई, परंतु अब हमारी-तुम्हारी कल बनेगी। जैसे मैंने प्रतिज्ञा तोड़ी है, वैसे ही कल तुम्हारी प्रतिज्ञा भी टूटेगी। कल तुम्हें भी अपने हाथों में शस्त्र लेना पड़ेगा।' भगवान् ने मौन से ही स्वीकृति दी और द्रौपदी के साथ लौट आये।[1] भीष्म मन-ही-मन गाने लगे- आज जो हरिहि न शस्त्र गहाऊँ। नवें दिन प्रात:काल नित्य-कृत्य से निवृत्त होकर सभी योद्धा रणभूमि में आये। उस दिन पहले के दिनों से भी भयंकर संग्राम हुआ। कौन-कौन से वीर किन-किन से लड़े और किन्होंने किनका वध किया और किसने किसको कितने बाण मारे, यह सब जानना हो तो महाभारत का भीष्मपर्व ही पढ़ना चाहिये। उस समय पाण्डवों की सेना में भीष्म दावानल की भाँति प्रज्वलित हो रहे थे। बहुत-से रथ अग्नि के कुण्ड थे, धनुष उनकी ज्वाला थी; तलवार, गदा, शक्ति आदि ईंधन थे, बाण चिनगारी थे। भयंकर नर-संहार हो रहा था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इसी अवसर पर दुर्योधन का मुकुट लेकर उन पाँचों बाणों के लेने के लिये अर्जुन के आने की बात भी सुनी जाती है।
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