भीष्म पितामह -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 72

श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती

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भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण का माहात्म्य कथन, भीष्म की प्रतिज्ञा-रक्षा के लिये पुन: भगवान् का प्रतिज्ञा भंग, भीष्म का रण में पतन

आज भगवान् श्रीकृष्ण बहुत चिन्तित-से थे। उन्होंने देखा, अर्जुन भीष्म पितामह के गौरव और उनकी कृतज्ञता से दब-सा गया है। वह बार-बार कहने पर भी भीष्म पर कठोर शस्त्रों का आघात नहीं कर रहा है और भीष्म दुर्योधन से प्रतिज्ञा कर लेने के कारण घोर पराक्रम प्रकट कर रहे थे। भगवान् को भी अपनी भक्तवत्सलता और भीष्म की महिमा प्रकट करनी ही थी। उन्होंने एक बार, दो बार अर्जुन को समझाया, परंतु अर्जुन की ओर से कोई विशेष चेष्टा नहीं हुई। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन का रथ हाँककर भीष्म के सामने ले गये। भीष्म और अर्जुन का युद्ध होने लगा। भीष्म के बहुत-से शस्त्रास्त्र तो रथ की गति और घोड़ों को चलाने की चतुरता से भगवान् श्रीकृष्ण ने व्यर्थ कर दिये; परंतु फिर भी भीष्म के शस्त्रों से श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों ही घायल हुए बिना नहीं रहे। तीसरे दिन के युद्ध में जब भगवान् ने चक्र धारण किया था, तब तो अर्जुन की ही दुर्बलता उसमे प्रधान कारण थी; परंतु आज तो भीष्म की भीषणता और उनके महत्तव को प्रकट करना ही प्रधान कारण था। उन्होंने अर्जुन के रथ के घोड़ों की रास छोड़ दी। वे रथ से कूद पड़े और बारम्बार सिंहनाद करके हाथ में कोड़ा लिये हुए भीष्म को मारने दौड़े। श्रीकृष्ण की आँख लाल-लाल हो रही थीं। उनका शरीर खून से लथपथ हो रहा था। वेग से चलने के कारण उनका पीताम्बर पीछे की ओर उड़ रहा था। उनके पदाघात से पृथ्वी फट-सी रही थी। भगवान् श्रीकृष्ण को इस प्रकार भीष्म की ओर झपटते देखकर कौरव पक्ष के सैनिक भय से विह्ल हो गये और उनके मुँह से 'भीष्म मरे, भीष्म मरे' ये शब्द निकलने लगे। सिंहनाद करते हुए श्रीकृष्ण जिस समय भीष्म की ओर बड़े वेग से जा रहे थे, उस समय ऐसा मालूम हो रहा था कि कोई बड़ा बलशाली सिंह मत्त हाथी पर आक्रमण करने के लिये जा रहा है। उनके मरकतमणिके-से साँवले शरीर पर वर्षाकालीन बादल में स्थिर बिजली की भाँति पीताम्बर फहरा रहा था।

श्रीकृष्ण को भीष्म की ओर बढ़ते देखकर सब लोग तो भयभीत हो गये; परंतु भीष्म तनिक भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने अपने धनुष की डोरी खींचते हुए कहा- 'श्रीकृष्ण! मंथ आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ; आइये! आइये! इस वीरवेश में में आपका स्वागत है। इस महायुद्ध में आपके द्वारा ही मुझे वीरगति प्राप्त हो, वह वांछनीय है। मेरे लिये आपके हाथों मरना परम कल्याण है। तीनों लोकों में मुझे सम्मानित कराने के लिये ही आपने अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर मेरी प्रतिज्ञा रखी है। भक्तवत्सल! मैं आपका सेवक हूँ। आप मुझ पर चाहे जैसा प्रहार करें।'एह्येति पुण्डरीकाक्ष देवदेव नमोऽस्तु ते। मामद्य सात्वतश्रेष्ठ पातयस्व महाहवे॥ त्व्याअ हि देव संग्रामे हतस्यापि ममानघ। श्रेय एव परं कृष्ण लोके भवति सर्वत:॥ सम्भावितोऽस्मि गोविन्द त्रैलोक्येनाद्य संयुगे। प्रहरस्व यथेष्टं वै दासोऽस्मि तव चानघ॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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भीष्म पितामह -अखण्डानन्द सरस्वती
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. वंश परिचय और जन्म 1
2. पिता के लिये महान् त्याग 6
3. चित्रांगद और विचित्रवीर्य का जन्म, राज्य भोग, मृत्यु और सत्यवती का शोक 13
4. कौरव-पाण्डवों का जन्म तथा विद्याध्यन 24
5. पाण्डवों के उत्कर्ष से दुर्योधन को जलन, पाण्डवों के साथ दुर्व्यवहार और भीष्म का उपदेश 30
6. युधिष्ठिर का राजसूय-यज्ञ, श्रीकृष्ण की अग्रपूजा, भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण के स्वरुप तथा महत्तव का वर्णन, शिशुपाल-वध 34
7. विराट नगर में कौरवों की हार, भीष्म का उपदेश, श्रीकृष्ण का दूत बनकर जाना, फिर भीष्म का उपदेश, युद्ध की तैयारी 42
8. महाभारत-युद्ध के नियम, भीष्म की प्रतिज्ञा रखने के लिये भगवान् ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी 51
9. भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण का माहात्म्य कथन, भीष्म की प्रतिज्ञा-रक्षा के लिये पुन: भगवान् का प्रतिज्ञा भंग, भीष्म का रण में पतन 63
10. श्रीकृष्ण के द्वारा भीष्म का ध्यान,भीष्म पितामह से उपदेश के लिये अनुरोध 81
11. पितामह का उपदेश 87
12. भीष्म के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण की अन्तिम स्तुति और देह-त्याग 100
13. महाभारत का दिव्य उपदेश 105
अंतिम पृष्ठ 108

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