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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण का माहात्म्य कथन, भीष्म की प्रतिज्ञा-रक्षा के लिये पुन: भगवान् का प्रतिज्ञा भंग, भीष्म का रण में पतनभीष्म उस समय अपनी शय्या पर बैठे हुए भगवान् का चिन्तन कर रहे थे, वे सोच रहे थे-मेरा जीवन भी कितना गया-बीता है। जिनके पक्ष में भगवान् हैं उनके विरोधियों के पक्ष में मैं हूँ। केवल पक्ष में ही नहीं हूँ, उनका अन्न खाकर मैंने अपना शरीर पुष्ट किया है, उन्हीं की ओर से लड़ रहा हूँ और आज तो दुर्योधन की बात में आकर मैंने अपने हृदय के विरुद्ध, आत्मा के विरुद्ध पाण्डवों को मारने की प्रतिज्ञा भी कर ली। मेरे इस अपराध की सीमा नहीं है। क्या भगवान् कोई उपाय करके पाण्डवों को बचायेंगे! हे प्रभो! इन बाणों की शक्ति हर लो, जिससे ये मेरे चलाने पर भी पाण्डवों को न मार सकें। मैं नीचों का संगी हूँ, तुम्हारे भक्तों का अपराधी हूँ। तुम्हारे चरणों में मेरा प्रेम नहीं, मेरा यह जीवन व्यर्थ है। भीष्म पितामह यही सब सोच रहे थे, उनके हृदय में शत-शत वृश्चिक-दंशन की भाँति पीड़ा का अनुभव हो रहा था। आँखों से आँसू की अजस्र धारा बह रही थी। ऐसी ही परिस्थिति में द्रौपदी ने जाकर उनके चरणों में प्रणाम किया। भीष्म ने अधखुली आँखों से देख और सोचा कि दुर्योधन की स्त्री होगी। उन्होंने अपनी उसी विचारधारा में तल्लीन रहते हुए ही कह दिया- 'बेटी! तुम्हारा सुहाग अचल रहे।' द्रौपदी अपना सिर नीचा करके अलग खड़ी हो गयी। हँसते हुए भगवान् श्रीकृष्ण ने प्रवेश किया। श्रीकृष्ण के चरणों की ध्वनि और हँसी पहचानकर भीष्म ने अपनी आँख खोलीं और देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण सामने खड़े-खड़े मुस्कुरा रहे हैं। उन्होंने आश्चर्यचकित होकर उनका यथायोग्य सत्कार किया। अब तक उन्होंने द्रौपदी को पहचान लिया था। उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा- 'भगवन्! मैं जान गया कि इस समय आप यहाँ कैसे पधारे हैं; आप भक्तों के भक्त हैं, उनकी रक्षा के लिये आप दिन-रात चिन्तित रहते हैं। मेरी प्रतिज्ञा से उनकी रक्षा करने के लिये आपने यह अभिनय किया है। आपकी इच्छा पूर्ण हो। आपकी इच्छा के सामने भला किसकी इच्छा चल सकती है? अब मेरी प्रतिज्ञा टूट गयी। द्रौपदी का सौभाग्य अचल हुआ। अब क्या आज्ञा है? जो कहिये वही करूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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