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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
महाभारत-युद्ध के नियम, भीष्म की प्रतिज्ञा रखने के लिये भगवान् ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दीआपको कोई हरा नहीं सकता, मार नहीं सकता। आप स्वयं ही अपनी मृत्यु का उपाय बताइये।' भीष्म पितामह ने कहा-'युधिष्ठिर! युद्ध में मुझे मारने वाला कोई नहीं दीखता। साक्षात् इन्द्र भी मुझे नहीं जीत सकते। अभी मेरी मृत्यु का समय भी नहीं दीखता, इसलिये अभी जाओ, समय पर मेरे पास आना, मैं तुम्हारी सहायता करूँगा। युधिष्ठिर द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदि से आशीर्वाद लेकर अपनी सेना में लौट आये।' युद्ध छिड़ा, कितना भयंकर युद्ध हुआ, उसमें कौन-कौन से लोग मारे गये, किसने किसको कितने बाण मारे और प्रतिदिन कितने वीरों का संहार हुआ, इसका वर्णन करना अपना विषय नहीं है। इतना ही समझ लें, बड़ा भयंकर युद्ध हुआ और भीष्म पितामह ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार दस हजार वीरों का प्रतिदिन संहार किया। तीसरे दिन के युद्ध में पाण्डवों ने दोपहर होते-होते कौरवों को छका दिया। कौरवों के सैनिक भागने लगे, स्वयं दुर्योधन मूर्च्छित हो गया। सारथी ने युद्धभूमि के बाहर ले जाकर उसकी रक्षा की। होश आने पर दुर्योधन ने सैनिकों को लौटाया और वह भीष्म पितामह के पास जाकर कहने लगा-'पितामह! आप, द्रोणाचार्य और कृपाचार्य के जीवित रहते मेरी सेना का इस प्रकार भागना किसी प्रकार योग्य नहीं कहा जा सकता। मैं यह कदापि नहीं मान सकता कि पाण्डव आप लोगों की अपेक्षा अधिक पराक्रमी हैं। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि आप पाण्डवों पर कृपा करके उन्हें बलपूर्वक रोकते नहीं और जान-बूझकर उन्हें क्षमा कर रहे हैं। यदि आपकी ऐसी ही इच्छा थी तो पहले ही क्यों नहीं कह दिया? मैंने केवल आप लोगों के भरोसे पर ही यह युद्ध छेड़ा है। यदि आप लोग मेरा साथ नहीं छोड़ रहे हैं तो अपने पराक्रम के अनुरुप युद्ध कीजिये और शत्रुओं को नष्ट कीजिये।' दुर्योधन की बात सुनकर भीष्म पितामह हँसने लगे। फिर उन्होंने क्रोध से अपनी आँख लाल-लाल करके दुर्योधन से कहा-'दुर्योधन! यदि तुम मेरी बात पर ध्यान देते तो यह नौबत ही क्यों आती! मैंने तुमसे बार-बार सच्ची बात कह दी है और तुम्हारा हित भी तुम्हें सुझा दिया है। यह बात तुमसे कई बार कह चुका हूँ कि इन्द्र सहित सारे देवता भी यदि पाण्डवों को हराना चाहें तो नहीं हरा सकते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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