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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
महाभारत-युद्ध के नियम, भीष्म की प्रतिज्ञा रखने के लिये भगवान् ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दीश्रीकृष्ण को देखकर भीष्म आश्चर्यचकित हो गये। उन्होंने पूछा- 'भगवन्! इस समय आप यहाँ?' भगवान् ने कहा- 'पितामह! जब तुमने पाण्डवों को मारने का प्रण कर लिया, तब मुझे नींद कैसे आ सकती है? अब तो तुम्हारे हाथ से बाण निकल गये, क्या, कल पाण्डवों को मारोगे?' भीष्म ने कहा-'भगवन्! तुम जिनके रक्षक हो उन्हें भला कौन मार सकता है? मेरी प्रतिज्ञा में रखा ही क्या है? तुम्हारी जो इच्छा हो वही पूर्ण हो। तुम्हारी इच्छा के विपरीत मेरे मन में कोई इच्छा ही न हो।' भगवान् हँसते हुए अर्जुन के साथ लौट आये, इस प्रकार पाण्डवों की रक्षा हुई। यहाँ इस घटना के उल्लेख का एकमात्र यही प्रयोजन है कि प्राचीन समय में हमारे यहाँ कितनी पवित्र सभ्यता थी। एक उपकार के बदले दुर्योधन -जैसा बदनाम व्यक्ति भी अपना राजमुकुट दे सकता है और अपने प्राण देने को तैयार रह सकता है। क्या आज की सभ्यता में ऐसा कोई माई का लाल है, जो अपने शत्रु के साथ ऐसा बर्ताव करे? अथवा कोई ऐसा विश्वासी है, जो इस प्रकार नि:शस्त्र होकर रात में अपने शत्रु के शिविर में जाये और भाई-भाई की तरह गले लगे? हाँ, तो कौरव-पाण्डवों के युद्ध के नियम बन गये और यथाशक्ति उनका पालन भी हुआ। हम यह नहीं कहते कि उनका उल्लंघन नहीं हुआ, हुआ और अवश्य हुआ: परंतु उसकी निन्दा भी कम नहीं हुई, आखिर युद्ध युद्ध ही तो है। दोनों ओर की सेनाएँ व्यूह बनाकर खड़ी हो गयीं। अर्जुन के मन में जो कुछ शोक-मोह आया, गीता का उपदेश करके भगवान् ने उसे हटा दिया। दोनों ओर से बड़े-बड़े वीर सिंहनाद करने लगे, शंख बजाये जाने लगे। अब शस्त्र चलाने भर की देर थी। इतने में ही लोगों ने बड़े आश्चर्य से देखा कि धर्मराज युधिष्ठिर कवच उतारकर शस्त्र का परित्याग कर रथ से उतरकर कौरवों की सेना की ओर जा रहे हैं। उनको इस प्रकार जाते देखकर श्रीकृष्ण, अर्जुन, भीम, सहदेव आदि भी उनके पीछे-पीछे चलने लगे और राजाओं ने भी उनका अनुसरण किया। अर्जुन ने कहा- 'महाराज! आप यह क्या कर रहे हैं? हम लोगों को छोड़कर पैदल ही शत्रु-सेना में जाने का क्या उद्देश्य है?' भीमसेन ने कहा- 'आप शस्त्रास्त्र का परित्याग करके कवच उतारकर शत्रुओं की शस्त्रास्त्र से सुसज्जित सेना की ओर जा रहे हैं, आपका अभिप्राय क्या है?' नकुल और सहदेव ने भी प्रश्न किये, किंतु उन्होंने किसी का उत्तर नहीं दिया, वे चलते ही गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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