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श्री भीष्म पितामह -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती
कौरव-पाण्डवों का जन्म तथा विद्याध्यनभीष्म के सामने एक और कठिन समस्या आयी। जिस माता के लिये उन्होंने प्रतिज्ञा की थी, जिसकी आज्ञा से अपने लिये आवश्यकता न होने पर भी काशिराज की कन्याओं का हरण किया था। जिनकी इच्छा पूर्ण करने में उन्हें किसी प्रकार की हिचकिचाहट नहीं होती थी, वही माता सत्यवती उनके पास आयीं और उन्होंने कहा-'बेटा' तुम पुत्र उत्पन्न करो।' सत्यवती ने भीष्म को समझाते हुए कहा-'बेटा' तुम धर्मज्ञ हो, अपने वंश और धर्म की रक्षा तुम्हारे लिये आवश्यक है। बहुत दिनों से जिस सिंहासन पर बड़े-बड़े वीर सम्राट् बैठते आये हैं क्या वह अब सूना हो जायेगा? ब्रह्मा से लेकर आज तक जिस वंश का दीपक जलता रहा, क्या अब वह बुझ जायेगा? तुम अंगिरा और शुक्राचार्य के समान विपत्ति के समय पर धर्म पर विचार कर सकते हो। मैं तुम्हारी गम्भीरता से परिचित हूँ। अब ऐसा करो कि धर्म और वंश का लोप न हो।' माता की आज्ञा सुनकर भी भीष्म के मन में तनिक भी दुविधा नहीं हुई। उन्होंने कहा-'माता' तुम्हारा कहना अक्षरश: उचित है, परंतु मैं अपनी प्रतिज्ञा से बंध चुका हूँ। माता! तुम्हारे कन्यादान के समय तुम्हारे ही लिये मैंने जो प्रतिज्ञा की है, उसे मैं कदापि छोड़ नहीं सकता।' भीष्म ने आगे कहा- 'मैं त्रिलोकी का राज्य छोड़ सकता हूँ, देवताओं का राज्य छोड़ सकता हूँ और इससे भी अधिक कुछ हो उसका परित्याग कर सकता हूँ: परंतु मैं किसी प्रकार सत्य का परित्याग नहीं कर सकता। पृथ्वी गन्ध को छोड़ दे, वायु स्पर्श को छोड़ दे, सूर्य ज्योति को छोड़ दे, धूमकेतु उष्णता को छोड़ दे, आकाश शब्द को छोड़ दे और चन्द्रमा शीतलता छोड़ दे, इन्द्र अपना पराक्रम छोड़ दें, धर्मराज अपने धर्म को छोड़ दें; परंतु मैं कदापि सत्य छोड़ने का और अपनी की हुई प्रतिज्ञा तोड़ने का संकल्प भी नहीं कर सकता।[1] अपने धर्मज्ञ और सत्यवादी पुत्र के ये वचन सुनकर सत्यवती ने कहा-'बेटा! मैं तुम्हारी सत्यनिष्ठा जानती हूँ, तुम चाहो तो अपने तपोबल से और प्रभाव से तीनों लोक और उनके अन्तर्गत पदार्थों की सृष्टि कर सकते हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ परित्यजेयं त्रैलोक्यं राज्यं देवेषु वा पुन:। यद्वाप्यधिकमेताभ्यां न तु सत्यं कथंचन॥ त्यजेच्च पृथिवी गन्धमापश्च रसमात्मन:। ज्योतिस्तथा त्यजेद्रूपं वायु: स्पर्शगुणं त्यजेत्॥ प्रथां समुतसृजेदर्को धूमकेतुस्तथोष्मताम्। त्यजेच्छब्दं तथाकाशं सोम: शीतांशुतां त्यजेत्। विक्रमं वृत्रहा जह्याच्च धर्मराट्। न त्वहं सत्यमुत्स्त्रष्टुं व्यवस्येयं कथंचन॥
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