गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 297

गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज

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पंचम अध्याय

एक बार एक सज्जन ने हमें बहुत डराया कि पूर्वमीमांसा में ऐसा है, पूर्वमीमांसा में वैसा है। इस पर हमें जोश आ गया। हमने कहा कि भाई, तुम मीमांसा का नाम लेकर उन लोंगो को डराया करो, जिन्होंने कभी मीमांसा नहीं पढ़ी। यह विभीषिका हमारे ऊपर इसलिए प्रभाव नहीं डालेगी कि पूर्वमीमांसा के अनुसार संन्यासश्रम की कोई कीमत ही नहीं है, यहाँ तक कि पूर्वमीमांसा के अनुसार ईश्वर की कोई कीमत नहीं है। अपूर्व-अचेतन, अचेतन-अपूर्व ही फल दे लेता है। जिस मत में सृष्टि प्रलय ही नहीं है; जिस मत में वैराग्य का कोई स्थान ही नहीं है, जिस मत में अंधे पंगु आदि ही संन्यास के अधिकारी हैं, वह मत हमारे सामने कोई विभीषिका नहीं उत्पन्न कर सकता।

सर्वलोकमहेश्वरम्’- हमारे तो एक परमेश्वर ही सर्वलोग महेश्वर है। यदि सारी सृष्टि का परमेश्वर एक न हो और इस शरीर का स्वामी जीव न हो तो जीववत् और ईश्वरत्व- दोनों का परित्याग कर देने पर अखण्ड चेतन में एकता कैसे होगी? अखण्ड चेतन की एकता तब तक उत्पन्न नहीं होगी, जब तक ईश्वर की सिद्धि न हो। पूर्वमीमांसा मे तो सृष्टिकर्ता ही नहीं है। ‘न कदाचिदनीदृशं जगत्’- दुनिया हमेशा से अपने आप चल रही है।

‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’- हमारा परमेश्वर उपकार-निरपेक्ष है, सबका भला करने वाला है, सुहृदय है। ऐसा नहीं है कि उसको भेंटपूजा चढ़ाओ, तब तो वह भलाई करेगा और भेंट-पूजा न चढ़ाओ तो भलाई नहीं करेगा। भला करना तो उसका सहज स्वभाव है। जो अर्घ्य नहीं देता है, सूर्य उसको भी प्रकाश देता है। इसलिए जब सूर्य का यह स्वभाव है, तब ईश्वर भेंट पूजा करने वाल और न करने वाले- दोनों का हित कैसे नहीं कर सकता? ‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ इसका अर्थ है कि परमेश्वर हमसे दूर नहीं है, हृदय में ही उसका निवास है।

एक महात्मा ने हमें एक बड़ी अच्छी बात सुनाई थी। एक राजा बड़ा दयालु था। यह किसी विद्यालय में गया। उसके सामने विद्यार्थियं से प्रश्न पूछे गये। उनमें एक साधारण सा दीखने वाला लड़का सब प्रश्नों के उत्तर बड़े बढ़िया ढंग से देता गया। राजा ने कहा कि यह तो बड़ा बुद्धिमान लड़का है। यह किसका पुत्र है? विद्यालय के अधिकारी बोले कि अनाथ है, इसके माँ-बाप नहीं हैं। राजा ने कहा कि तब इसके पढ़ने-लिखने का बन्दोतस्त कैसे होता है? अधिकारी ने उत्तर दिया कि हम लोग किसी तरह कुछ ले-देकर और कुछ माँग-मूँगकर इसकी गुजर-वसर कर देते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. पहला अध्याय 1
2. दूसरा अध्याय 26
3. तीसरा अध्याय 149
4. चौथा अध्याय 204
5. पाँचवाँ अध्याय 256
6. छठवाँ अध्याय 299
7. सातवाँ अध्याय 350
8. आठवाँ अध्याय 384
9. नववाँ अध्याय 415
10. दसवाँ अध्याय 465
11. ग्यारहवाँ अध्याय 487
12. बारहवाँ अध्याय 505
13. तेरहवाँ अध्याय 531
14. चौदहवाँ अध्याय 563
15. पंद्रहवाँ अध्याय 587
16. सोलहवाँ अध्याय 606
17. सत्रहवाँ अध्याय 628
18. अठारहवाँ अध्याय 651
अंतिम पृष्ठ 723

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