गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 291

गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज

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पंचम अध्याय

उनको यह ‘डाउट’ (ष्ठश्र्ह्वड्ढहृ) नहीं था कि ईश्वर कहाँ मिलेगा! डाउट माने द्वैत अथवा संशय ही होता है। अरे भाई इधर भी, उधर भी! उनका द्वैध कट गया, दुविधा जो उनके दिल में थी वह मर गयी। संशय अज्ञान का बच्चा है। वह कट गया है और ‘यतात्मानः- उनकी इन्द्रियाँ तथा मन- सब के सब काबू में हैं।’ वे ‘सर्वभूतहिते रताः’ अर्थात् सर्वभूतों के हित में संलग्न है। जब मैं श्रीशंकरानन्द स्वामी की गीता टीका पढ़ी थी तो उसमें इसका रथ ऐसे लिखा हुआ था कि ‘सर्वभूतेषु हितं यद् ब्रह्म तस्मिन् सर्वभूतहिते ब्रह्मणि रताः’- संपूर्ण भूतों में जो निहित ब्रह्म है, उसमें उनकी रति है। वे इसको लोकोपकार में नहीं लगाते थे। गीता पर शंकरानन्दी टीका बड़ी बढ़िया है। साधुओं के काम की तो वही है।

नीलकंठ में एक महात्मा रहते थे। गंगा-स्नान भी नहीं करते थे; विश्वनाथ का दर्शन भी नहीं करते थे। रोटी कहीं बाहर से आ जाती तो खा लेते थे। एकबार मैं उनके पास गया तो देखा कि वे शंकरानन्दी टीका का स्वाध्याय करते थे। उन्होंने मुझे बताया कि शांकरभाष्य तो श्रवण है; वह तो एक धक्के में ही योग्य अधिकारी के अज्ञान का नाश कर देता है। कोई प्रतिबन्द हो तो मधुसूदनी टीका पढ़नी चाहिए और यदि विपर्यय शेष हो तो उसका निवारण करने के लिए शंकरानन्दी टीका है। शंकरानन्दी टीका निदिध्यासन है, मधुसूदनी मनन है और शांकरभाष्य श्रवण है। उत्तम अधिकारी के लिए शांकरभाष्य पर्याप्त है। परंतु संशय-विपर्यय हो तो मधुसूदनी-शंकरानन्दी पढ़ लेनी चाहिए।

‘सर्वभूतहिते रताः’- इसमें जो ‘हित’ शब्द है, यह औपनिषद है। कौषीतकी उपनिषद् में कथा आती है कि जब इन्द्र ने प्रतर्दन से कहा कि वर माँग लो तो प्रतर्दन ने कहा कि बाबा, हम नहीं जानते कि क्या माँगना चाहिए। इसलिए- ‘यदेव हिततमं तदेव मे ब्रूहि’- जो हिततम हो, वह हमें बताओ। इन्द्र ने कहा कि एक ऐसा ज्ञान है, जिसे प्राप्त कर लेने पर पाप-पुण्य का संश्लेषण नहीं होता है। वहीं इन्द्र ने पापों के जो नाम गिनाये हैं, उन्हें हम आपको नहीं सुनाना चाहते, क्योंकि ‘कथापि खलु पापानां अलम् अश्रेयसे यतः’ (शिशुपालवध 2.40) पापों के नाम ले-लेकर नहीं गिनना चाहिए कि यह भी पाप है, यह भी पाप है। पापों के नामोच्चारण से भी अमंगल होता है। यदि नाम ले-लेकर गिनाना ही हो तो भगवान् का ही नाम लेना चाहिए। असल में सर्वभूतों का हित इसमें नहीं है कि उसके लिए कोई खास काम करने में लगें या खास स्थिति में बैठ जायें। यह सर्वभितहित नहीं है। जब तक अविद्यान्धकारका नाश न होजाये, तब तक सर्वभूत हित होता ही नहीं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. पहला अध्याय 1
2. दूसरा अध्याय 26
3. तीसरा अध्याय 149
4. चौथा अध्याय 204
5. पाँचवाँ अध्याय 256
6. छठवाँ अध्याय 299
7. सातवाँ अध्याय 350
8. आठवाँ अध्याय 384
9. नववाँ अध्याय 415
10. दसवाँ अध्याय 465
11. ग्यारहवाँ अध्याय 487
12. बारहवाँ अध्याय 505
13. तेरहवाँ अध्याय 531
14. चौदहवाँ अध्याय 563
15. पंद्रहवाँ अध्याय 587
16. सोलहवाँ अध्याय 606
17. सत्रहवाँ अध्याय 628
18. अठारहवाँ अध्याय 651
अंतिम पृष्ठ 723

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