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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
पंचम अध्यायसूर्योदय होने से मनुष्य की आँख के आगे जो अन्धेरा छाया हुआ है, वह मिट जाता है। सूर्य दुनिया में कुछ नहीं बनाता है, केवल अन्धेरा दूर कर देता है और जो है, वह दीखने लगता है। इसी प्रकार जब परमात्मा का ज्ञान उदय होता है, तब बुद्धि में अंधकार दूर कर देता है और जो असली चीज है, वह दीखने लगती है। सूर्य की तरह ज्ञान भी कुछ बनाता नहीं बिगाड़ता नहीं। प्रेम तो अप्रिय को भी प्रिय बना देता है। प्रेम निर्माता है। किन्तु ज्ञान निर्माता नहीं है, विधाता नहीं। वह केवल, जो जैसी चीज है, उसको वैसा ही दिखा देता है। यह शिव भी नहीं है, प्रलयंकर भी नहीं है। ज्ञान किसी को मारता नहीं, किसी को पालता नहीं, किसी को पैदा नहीं करता। ज्ञान केवल अन्धकार को मिटा देता है और जो चीज जैसी है वैसी दीखने लगती है। इसीलिए ज्ञान का फल अविद्या निवृत्ति मात्र ही है। यदि उत्पाद्य फल होगा तो वह भी नाशवान् हो जायेगा। ‘तद्बुद्ध्यः’ माने उसी परमार्थ में अपनी बुद्धि लगाओ। वही परब्रह्म, वही परमार्थ तत्व आत्मा है- ‘तदामानः’। उसी को आत्मा के रूप में देखो और तन्निष्ठाः’ उसी में अभिनिवेश करो। अरे साक्षात् अपरोक्ष अनुभव न हो, तब भी जिद कर लो कि हम तो ब्रह्म ही हैं। ‘अस्यते प्राप्यते ध्यानाद् नित्यात्मब्रह्म चिन्तनाः तत्परायणाः’- बस, वहीं पहुँचना है, उसके आगे और कुछ नहीं है। देखो, शैवों ने इसको ‘अनष्ट महल’ कहा है। मैं आपको ‘अनष्ट महल’ का अर्थ सुनाता हूँ। ‘अनचक् अनहलं’ अर्थात् अच् प्रत्याहा हल प्रत्याहार दोनों से जितने शब्द बनते हैं, उनकी गति वहाँ तक नहीं है। फिर आप कहाँ पहुँचाना चाहते हैं? हम आपको ‘अनष्ट महल’ का अर्थ सुनाता हूँ। ‘अनष्टमहलम्’ में पहुँचाना चाहते हैं? यह ‘अनष्टक महल’ क्या होता है? अरे बाबा, कुछ तो रहस्य को रहस्य रहने दो! यह गुरुवाग्-गम्य है, बिना गुरु से सीखे इसका मतलब समझ में नहीं आ सकता।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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