गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 270

गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज

Prev.png

पंचम अध्याय

किन्तु यदि तत्ववेत्ता पुरुष को तत्व का दृढ़ अपरोक्ष साक्षात्कार न हुआ हो तो यह जो धारणा है, यह तत्व का दृढ़ अपरोक्षा साक्षात्कार हो जाने के बाद की नहीं है, यह भी पहले की है। अदृढ़ ज्ञानी को ही धारणा की आवश्यकता होती है। दृढ़ ज्ञानी को तो धारणा की कोई आवश्यचकता ही नहीं है। इसलिए तत्ववित् पुरुष युक्त होकर ‘नैव किंचित् करोमि इति मन्यते’- मैं कुछ नहं करता हूँ, यहाँ तक कि मैं कुछ नहीं करता हूँ- यह भी मैं नहीं करता हूँ। मैं कुछ नहीं करता हूँ- ऐसा भाव भी, ऐसी वृत्ति भी मैं नहीं करता हूँ। तब फिर क्या वह बेचारा चारों ओर से बन्द हो गया? चतुर्बन्द में चला गया?

गली तो चारों बंद भई, कैसे मिलूँ पिया सो जाय?

नहीं, चतुर्बन्द नहीं चला गया। वह आँख से देखता है, कान से सुनता है, त्वचा से छूता है, नाक से सूँघता है, मुँह से खाता है और पाँव से चलता है। उसको भी स्वप्न-जागरण होता है, वह भी साँसलेता है, वह भी ‘प्रलपन्’- बकवास करता है, वह भी ‘विसृजन्’ शौच- लघुशंका कर जाता है, वह भी ‘गृह्णन्’ खाता है और आँख की पलक उसकी भी उठती-गिरती है। पर यह सब होते हुए भी उसकी ऐसी स्थिति होती है कि-

'इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते इति धारयन्।[1]
नैव किंचित् करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्।[2]

इन्द्रियाँ अपने विषयों में बरत रही हैं, मैं कुछ नहीं बरत रहा हूँ।

देखो, जो रूखे-सूखे प्रकृतिवादी होते हैं, वे अपने कर्म को प्रकृति में रख देते हैं और स्वयं असंग द्रष्टा बनकर देखते रहते हैं। किन्तु ब्रह्मज्ञानी अपने कर्मों को प्रकृति में नहीं दिखता है। उसमें प्रस्थान भेद हैं।

ब्रह्ण्याधाय कर्माणि संग्ङं त्यक्त्वा करोति य: ।
लिप्तये न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ||[3]

कर्मों का अधिष्ठान ब्रह्म है, कर्मों को सत्ता-स्फूर्ति देने वाला ब्रह्म है, कोई परिच्छिन्न कर्ता-भोक्ता इस शरीर में बैठा हुआ नहीं है। उसने सारे कर्मों को अद्वितीय ब्रह्म में डाल दिया। बड़ी जगह में जाते ही छोटा अपनी सत्ता को खो बैठता है। अपरिच्छिन्न अधिष्ठान प्राप्त होते ही परिच्छिन्न अपने अत्यन्ता भाव के अधिष्ठान में हो जाता है, इसलिए उसकी परिच्छिन्नता मर जाती है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (9)'
  2. (8)
  3. 10

संबंधित लेख

गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. पहला अध्याय 1
2. दूसरा अध्याय 26
3. तीसरा अध्याय 149
4. चौथा अध्याय 204
5. पाँचवाँ अध्याय 256
6. छठवाँ अध्याय 299
7. सातवाँ अध्याय 350
8. आठवाँ अध्याय 384
9. नववाँ अध्याय 415
10. दसवाँ अध्याय 465
11. ग्यारहवाँ अध्याय 487
12. बारहवाँ अध्याय 505
13. तेरहवाँ अध्याय 531
14. चौदहवाँ अध्याय 563
15. पंद्रहवाँ अध्याय 587
16. सोलहवाँ अध्याय 606
17. सत्रहवाँ अध्याय 628
18. अठारहवाँ अध्याय 651
अंतिम पृष्ठ 723

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः