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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
पंचम अध्याययोगी युक्त है और जो श्रद्धावान् मेरा भजन करता है वह युक्तम है। यहाँ प्रश्न उठता है कि इस कथन में भजन और भक्त की प्रशंसा ही अभीष्ट है या कुछ और है? श्रद्धालु ने भगवान् को तो देखा ही नहीं है। वह श्रद्धालु है, भजन करता है और केवल युक्त नहीं, युक्तम् है। वहाँ भजन की प्रेरणा के लिए ही उसको युक्तम कहा गया है। यहाँ वास्तव में वह ‘योगिनामपि सर्वेषाम्’ श्रेष्ठ हो, इसके लिए उसको युक्तम् नहीं कहा गया है। गीता में यह कथन भी भगवान् का ही है कि- इसके एक ओर है भक्त और दूसरी ओर है ‘तेऽतीव मे प्रियाः श्रद्दधाना मत्परमाः’ यह तो ऐसा ही है जैसे कोई बच्चे से कहे कि शाबास बेटे, मैं तुम्हारे बड़े भाई से तुम्हें ज्यादा प्यार करता हूँ। इस पर बच्चा बेचारा उत्साहित हो जायेगा। लेकिन हम यहाँ उस बाप को नहीं जोड़ते हैं। गीता के बारहवें अध्याय में भी इसी प्रकार की बातें आयी हैं जैसे- ‘मय्येव मन आधत्स्व’- एक, ‘अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्’- दो, ‘अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनंजय’- तीन, ‘भ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव’- चार, ‘मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि’- पाँच और ‘अथैतदप्यशक्तोऽसि कुर्त्तुं मद्योगमाश्रितः।’‘सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु’- यह क्या हुआ? सबके पीछे यही पड़ा न! एक नम्बर हो गया बुद्धि-मन का समर्पण, दूसरा हो गया अभ्यास, तीसरा हो गया मतर्थ कर्म, चौथा हुआ सर्वकर्म- फलत्याग और जब फल बताना हुआ तो बोले कि- ‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’। श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते। इसमें जो चीज चौते नम्बर की थी, उसको पहले नम्बर पर पहुँचा दिया। बात यह है कि हमारा यह ग्वारिया बोलने में इतना निपुण है कि इसकी बात समझना बड़ा मुश्किल पड़ता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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