गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 238

गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज

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चतुर्थ अध्याय

अरे यह और भी विचित्र है! आप यह मत समझना कि जब तक पंडित न आये और आग, घी न मिले तब तक होम नहीं होता है। वह सब तो माडल हैं, होम के नमूने हैं। होम तो असल में यहाँ होता है। संन्यासी लोग होम करते हैं कि हम वाह्यग्नि में हवन नहीं करते, जठराग्नि में हवन करते हैं। हमें तो बचपन में ही हमारे बाबा ने भोजन के समय पंचाहुति देने की विधि बतायी थी। ‘प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, व्यानाय स्वाहा, समानाय स्वाहा, उदानाय स्वाहा। लो, हो गया हवन!’ हम लोग जो खाते-पीते हैं, उसको हम अपने में नहीं डोलते हैं। तब कहाँ डालते हैं? इन्द्रियों की जो अग्नि प्रज्वलित हो रही है, इसमें विषयों का होम कर रहे हैं। ‘गुणा गुणेषु वर्तन्ते।[1]इन्द्रियाँ विषयों को खा रही हैं, हम न खाने वाले हैं और न खाये जाने वाले हैं। इस होम के लिए चंदा-वन्दा की। जरूरत नहीं पड़ती। इस यज्ञ के लिए मंत्रों को बोलने में कुछ गलती हो जाय तो कुछ अपराध नहीं लगता। अगर ब्राह्मण न मिले तो उसकी कोई जरूरत ही नहीं है। जाने दो उसे। मंत्र अशुद्ध हो ब्राह्मण और सामग्री न मिले तब भी कोई बात नहीं। हमारे झोले में जो सामग्री आ गयी, वही यज्ञीय वस्तु है। अग्नि और ब्राह्मण तो हमारे भीतर ही हैं।

सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।
आत्म-संयम योगाग्नौ जुहृति ज्ञानदीपिते ॥[2]

देखो, शरीर में जो प्राण वायु है, वह आत्मिक है। यह शरीर में रहकर अपना काम करता है- उदानन करता है, व्यदानन करता है, अपानन करता है समानन और प्राणन करता है। यही इसका कर्म और इन्द्रियाँ अपना-अपना काम करती हैं। इन सबको कहाँ ले जाना है- इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् कहते हैं कि ‘आत्मसंय- योगान्गौ।’ जैसे घी डालकर अग्नि को प्रज्वलित करते हैं, वैसे ही तत्वज्ञान से ज्ञानाग्नि को प्रदीप्त कर लीजिए। उसमें बाहर कीकोई वस्तु नहीं डालनी। शरीर के भीतर जो इन्द्रिय कर्म और प्राण कर्म हो रहे हैं, उन सब कर्मों को उसमें हवन कर देना है। हवन का अर्थ होता है- स्वाहा। जैसे अग्नि में घी का स्वाहा होता है, वैसे ही संपूर्ण दृश्य-प्रपंच का आत्माग्नि में स्वाहा होता है। इसी का नाम है यज्ञ


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (3.28)
  2. 27

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गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. पहला अध्याय 1
2. दूसरा अध्याय 26
3. तीसरा अध्याय 149
4. चौथा अध्याय 204
5. पाँचवाँ अध्याय 256
6. छठवाँ अध्याय 299
7. सातवाँ अध्याय 350
8. आठवाँ अध्याय 384
9. नववाँ अध्याय 415
10. दसवाँ अध्याय 465
11. ग्यारहवाँ अध्याय 487
12. बारहवाँ अध्याय 505
13. तेरहवाँ अध्याय 531
14. चौदहवाँ अध्याय 563
15. पंद्रहवाँ अध्याय 587
16. सोलहवाँ अध्याय 606
17. सत्रहवाँ अध्याय 628
18. अठारहवाँ अध्याय 651
अंतिम पृष्ठ 723

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