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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
चतुर्थ अध्यायतब पंडित का अर्थ क्या हुआ? यही हुआ कि ‘ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः’- ज्ञानाग्नि के द्वारा कर्ता, कर्म, कर्मफल- ये तीनों जिसके जड़ में दिखायी पड़ते हैं वह प्रत्यक् चैतन्याभिन्न ब्रह्मज्ञान से जल चुका है जिसका, उसका नाम होता है पंडित। अब उस पंडित के जो समारम्भ हैं, उनको देखो, वह जो काम करता है, उनमें कोई काम संकल्प नहीं है, भोग संकल्प नहीं है। ‘यस्य सर्वै समारम्भाः काम-संकल्पवर्जिताः’ [1]। उसके द्वारा काम सब हो रहे हैं, लेकिन उसमें काम संकल्प नहीं है। क्योंकि ज्ञान की आग से उसके सब संकल्प जल गये हैं। उसमें यदि अनेक अतीत जन्मों के संचित कर्म हों तो वे भी जल गये हैं। लेकिन यदि इस जन्म के किये गये कर्म हों तो? उनका पूर्वार्ध नष्ट हो गया, फिर उत्तरार्ध? अरे, उत्तरार्ध की तो सत्ता ही नहीं है, तो कहीं और असत् का संश्लेष होगा? वे कहीं संश्लिष्ट होंगे! अच्छा महाराज, जितने पाप हैं, वे जल जायँ तो ठीक है लेकिन पुण्य-पुण्य तो रह जायँ। जैसे पाप जल जायँ और छूटें नहीं, वैसे ही पुण्य भी जल जायँ और छूटें नहीं तो! अरे भाई, महात्मा का जीवन पाप पुण्य से नहीं चलता। महात्मा का जीवन तो उसी की मौज से चलता है। जैसे चिद्वस्तु, संविद्वस्तु प्रतीति मात्र तरंगायमान हो रही है, वैसे ही महात्मा का जीवन है। न वह कर्म का कर्त है और न वह कर्म का फल है। वहाँ तो यह सब कुछ है ही नहीं है। त्यक्त्वा कर्मफलासंगं नित्यतृप्तो निराश्रय: । इसलिए कर्मफल की आसक्ति छोड़ दो। कर्मासंग, फलासंग दोनों को अलग-अलग करके छोड़ दो। हम यहाँ कर्म पूरा ही करेंगे, लेकिन मर गये तो! अरे बाबा, यदि एक जीवन में, दो जीवन में, तीन जीवन में का पूरा नहीं हुआ तो चौथे जीवन में यह काम पूरा करेंगे। जो काम अंशुमान् से पूरा नहीं हुआ, उसको भगीरथ ने पूरा किया। इसलिए कर्म का फल पाना भी अपने हाथ में नहीं है। जो लोग जिद्द कर लेते हैं कि हम यह कर्म पूरा ही करेंगे, वे जानते नहीं हैं कि काल में क्या हो रहा है। इसलिए कर्मासंग भी छोड़ो और फलासंग छोड़ो। हम काल को भरते हैं, जब तक बोल सकते हैं, तब तक बोलते हैं, नहीं बोल सकेंगे तो नहीं बोलेंगे। फिर पछतायेंगे थोड़े ही, कि हाय-हाय नहीं बोल सकते।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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