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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
चतुर्थ अध्यायलेकिन आजकल लोगों की योगासन की नुमायश का शौक हो गया है। भीड़ के सामने सिद्धासन बाँधकर, पद्मासन लगाकर बैठ जाते हैं और पीठ की रीढ़ सीधी करके कहते हैं कि अब हम कोई कर्म नहीं कर रहे हैं। अरे, पाँव बाँधना भी कर्म है, पीठ की रीढ़ सीधी करना भी कर्म है और यदि तुम कर्तृत्वपूर्वक कर्म निवृत्त हुए हो तो वह भी कर्म है। केवल बाहरी कर्म छोड़ देने से कोई अकर्ता नहीं हो जाता। अकर्म में भी जहाँ कर्तृत्व है, वहाँ अकर्म है। कर्म करते हुए भी जहाँ कर्तृत्व नहीं है, वहाँ अकर्म है। इस बात को समझो। असल में यहाँ अकर्तृत्व के ज्ञान से तात्पर्य है। कर्तृत्व निस्स्वभाव है। बौद्ध लोग कहते हैं कि कर्तापन निःस्वभाव है इसलिए शून्य है। सांख्य लोग कहते हैं कि कर्तृत्व प्रकृत का है, इसलिए हममें कर्तृत्व नहीं है, हम असंग हैं। वेदान्तियों का कहना है कि कर्तृत्व के भीतर जो साक्षी बैठा हुआ है, वह साक्षी वास्तव में अद्वितीय ब्रह्म है। इसलिए द्वैत प्रतिभास-मात्र है। उसमें कर्ता-कर्म और कर्मफल- ये सब बिना हुए ही मिथ्या भासित हो रहे हैं। केवल कर्तृत्व की निस्स्वभावता के ज्ञान से कोई अकर्ता नहीं हो सकता। अधिष्ठान ब्रह्म के रूप में अपने आत्मा को जानकर ही कर्तृत्व से मुक्त हुआ जा सकता है। साक्षी भी तब तक वस्तुतः कर्तृत्व से मुक्त नहीं है जब तक वह अपने को परिच्छिन्न साक्षी समझता है। यदि वह एक देह का साक्षी है, एक कर्ता का साक्षी है, तो वह भी कर्तृत्व से मुक्त नहीं है। वे सब साक्षीभाव धारण कर रहे हैं। अब भला बताओ, साक्षीभाव धारण करते हैं तो उसमें कर्तापन है कि नहीं? यदि कहो कि हम आज आध घण्टे तक साक्षी होकर बैठे रहें तो तुम्हारा आधा घण्टे का साक्षीपन बनावटी है। इसलिए अक्ल से काम लो। तुम्हें मनुष्य शरीर प्राप्त हुआ है। तुम अपने को सीओ मत किसी के साथ। बुद्धिमान होकर, युक्त होकर सारे कर्म करते हुए भी उनको कैंची से काट लो। तुम अद्वितीय ब्रह्म और सारे कर्म करते हुए भी अकर्ता रहो। ‘कृत्स्नकर्मकृत्’- कृत्स्नानि कर्माणि कृन्तति इति। कृति कर्तने।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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