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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
चतुर्थ अध्यायवह कछुआ भी है, मछली भी है, सूअर भी है, घोड़ा भी है, कोल भी है, पीपल भी है, औरत भी है, मर्द भी है, हाथी भी है और रोशनी भी है। वह क्या नहीं है? ‘सस सर्वम् अभवत्’। इसलिए आप अवतार का सिद्धांत बाइबिल पढ़कर, कुरान पढ़कर, सत्यार्थ- प्रकाश पढ़कर निश्चित मत करना। पहले निखिल जगत् का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण है परमेश्वर- इस बात का निश्चय कर लेना और फिर देखना कि ईश्वर का अवतार बिल्कुल बुद्ध्यारूढ़ हो जायेगा। यह कोई बेअकली की बात नहीं, अक्लमन्दी की बात है। इसके बिना एक विज्ञान से सर्व विज्ञान की प्रतिज्ञा पूरी नहीं होगी। लौह-मृत्तिका आदि के दृष्टान्त सिद्ध नहीं होंगे और ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’, ‘ब्रह्मवैदं विश्वमिदं वरिष्ठं’, ‘आत्मैवेदं सर्वम्’, ‘स एवेदं’, ‘अहमेवेदं सर्वम्’- ये जो श्रुतियाँ हैं इनमें से एक भी श्रुति संगत नहीं होगी। इसलिए अवतार सिद्धांत सर्वथा युक्तियुक्त साक्षी अनुभवारूढ़ है। इसी से प्रकृति और माया की सिद्धि होती है। प्रकृति माने आदत। उनकी यह प्रकृति है, उनका यह स्वभाव है। ईश्वर की प्रकृति है कि वह अद्वितीय होने पर भी सर्वरूप में प्रकट होता है और सर्वरूप में प्रकट होकर भी परिणामी नहीं होता। ‘आत्ममायया’- इसलिए कहा कि वह प्रकृतितः सर्वरूप से प्रकट होता है और ‘मायया’ इसलिए कहा है कि वस्तुतः वह अपने स्वरूप से प्रकट होता है और ‘मायया’ इसलिए कहा है कि वस्तुतः वह अपने स्वरूप का परित्याग नहीं करता, ज्यों का त्यों रहता है। ‘मायया’ का अर्थ यह भी है कि वह ऐसा जादूगर है, जो अपने को तरह-तरह का दिखा देता है, किन्तु रहता वही है। इसलिए वह किसी भी तरह का दिखे, है वही। अब आओ आगे चलें! भगवान् अपने अवतार का काल और प्रयोजन दोनों बताते हैं। जब धर्म का लोप होने लगता है, उस काल में भी अवतार होता है। देश में भी अवतार होता है और प्रयोजनवश भी अवतार होता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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