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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
तृतीय अध्यायदूसरी ओर संसारी लोग सोचते हैं कि जब हमारा राज्य होगा, तब हम साधुओं से हल जुतवायेंगे, क्योंकि बैल-वैल तो ज्यादा मिलेंगे नहीं। लेकिन उनका यह सोचना गलत है, क्योंकि हल जोतना सबका का काम नहीं है। यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव: । यहाँ तक भगवान् ने बहुत-से हेतु बतलाकर यह बात सिद्ध की कि जब तक मनुष्य को परम श्रेयरूप परमात्मा की प्राप्ति न हो जाये, तब तक उसके लिये स्वधर्म का पालन करना अर्थात् अपने वर्णाश्रम के अनुसार विहित कर्मों का अनुष्ठान नि:स्वार्थ भाव से करना अवश्य कर्तव्य है और परमात्मा को प्राप्त हुए पुरुष के लिये किसी प्रकार का कर्तव्य न रहने पर उसके मन-इन्द्रियों द्वारा लोक संग्रह के लिये प्रारब्धानुसार कर्म होते हैं। अब उपर्युक्त वर्णन का लक्ष्य कराते हुए भगवान अर्जुन[1] को अनासक्त भाव से कर्तव्य कर्म करने के लिये आज्ञा देते हैं-यहाँ पहले श्लोक में रति, तृप्ति और संतुष्टि- ये तीन बातें कही गयी है। स्त्री-पुरुष की परस्पर रति होती है और खाने-पीने से तृप्ति होती है। हमारे साथ एक साधु रहते थे। जिस दिन उनको खीर खाने को मिल जाये, उस दिन पेट हाथ फेरते हुए बोलते थे कि ब्रह्मानन्द तो आज ही आया। वे अभी भी हैं। उनकी जिह्वा को जब रस मिलता था, तब वे बड़ी तृप्ति का अनुभव करते थे। एक और बड़े महात्मा थे। सौ बरस से ज्यादा उम्र थी उनकी। जगन्नाथपुरी में रहते थे। किसी से ज्यादा बोलते नहीं थे। मसनद के सहारे लेटे रहते थे। लेकिन उनसे बात करने की एक युक्ति थी। कोई उनके पाँव पर हाथ फेरकर बोलता कि महाराज, कुछ लोग आपको देखने के लिए आये हैं, उन्हें लड़की की शादी करनी है। यह सुनकर वे कहते कि ‘अच्छा भैया, हमसे लड़की का ब्याह करने के लिए आये हैं? लेकिन हम तो बूढ़े हो गये, अब हमसे कौन ब्याह करेगा।’ अरे नहीं महाराज, अभी आप बूढ़े कहाँ हुए हैं? आप तो अभी जवान हैं। अच्छा तो बुलाओ! महात्मा बड़े सीधे, बड़े सरल और बड़े अच्छे थे। फिर भी रसमयी बातों से वे पिघल जाते थे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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