विषय सूची
गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
तृतीय अध्यायसहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति: । मनुष्य की सृष्टि ही यज्ञ के साथ हुई है। यह प्रजा यज्ञ के साथ ही पैदा हुई है। अरे यह जीव माटी खाता हुआ निकला, पानी पीता हुआ निकला, गर्मी लिये हुए निकला और साँस लिए हुए निकला। यदि वायु देवता यज्ञ के द्वारा इसे श्वास न देते, यदि अग्निदेवता यज्ञ के द्वारा इसे अपनी ऊष्मा न देते तो यह कैसे जीवित रहता? यह तो यज्ञ के साथ ही पैदा हुआ है- कुछ लेता हुआ, कुछ देता हुआ और किसी मर्यादा में रहता हुआ। यज्ञ का यही स्वरूप होता है। आदान, प्रदान, उत्सर्ग- ये सब यज्ञ में होते हैं। अब देखो कि इस स्थिति में तुम्हारा क्या कर्तव्य है? क्या तुम दुनिया को अच्छी साँस, देते हो? यदि तुम धुएँ वाली साँस दुनिया में फैलाते हो, तो वह कोई यज्ञ थोड़े ही होता है। धुएँ ही साँस फैलाना, मोटर, ट्रक, बस या चिमनियों से धुँआ छोड़ना, नदियों में फैक्टरी का पनाला गिराना- यह यज्ञ नहीं है। अरे तुम यज्ञ करना चाहते हो तो सुगंध फैलाने के लिए, मधुर रस की वर्षा करने के लिए, सौंदर्य की सृष्टि करने के लिए, सुकुमारता का विस्तार करने के लिए कर्म करो! गाली देने के लिए तुमको भगवान् ने जन्म नहीं दिया है। तुम तो दूसरों के कानों में अमृत उड़ेल दो। भगवान् ने, प्रजापित ने यज्ञ के साथ तुम्हारी सृष्टि की है और यह आदेश दिया है कि ‘अनेन प्रसविष्यध्वम्’- हम, तुमको ऐसा यज्ञरूप साधन देते हैं कि यह तुम्हारे लिए कामधेनु का काम करेगा- ‘इष्टकामधुक्।’ यदि तुम यज्ञ में तत्पर रहोगे, दूसरों की सेवा, दूसरों की भलाई करते रहोगे तो कामधेनु तुम्हारे घर में रहेगी। इससे तुमको जो चाहिए, वह अपने आप आ जायेगा। इसलिए तुम्हारे पास जो अच्छे से अच्छा है, वह तुम दूसरों को देते चलो। किसी अनुभवी कवि ने कितना अच्छा कहा है- पानी बाढ़े नाव में घर में बाढ़ दाम। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 10
संबंधित लेख
क्रम संख्या | अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज