गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 158

गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज

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तृतीय अध्याय

अब तीसरी बात देखो! जो ब्रह्मतत्व है, आत्मतत्व है, वह अकर्मकृत रहे परंतु ‘कश्चित् व्यक्तिविशेषः’ कोई भी शरीरधारी व्यक्ति क्षणमात्र के लिए भी, कभी भी कर्म के बिना नहीं रह सकता। लोग एकान्त में जाकर किसी पेड़ के नीचे रहते हैं, वहाँ दिन भर झाड़ू लगाते रहते हैं। आप लोग बुरा मत मानना. चिड़िया आकर बीट कर जाये या काँव-काँव, चीं-चीं करने लगे तो ढेला ही मारते हैं। जरा अकर्मकृत बैठकर देखो तो सही! कई लोग तो एकान्त में कुटिया मिल जाने पर उसे बाहर से बंद कर लेते हैं और उसमें कसरत करने लगते हैं। कसरत नहीं करते तो तेल लगाने में उनका समय व्यतीत होता है। एक महात्मा थे तो कुटिया इसलिए बन्द रखते थे कि किसी से मिलेंगे नहीं। लेकिन एकान्त में करें तो क्या करें? बेचारे आठ घंटे से भी नहीं सकते थे। सोवें तो घर्र-घर्र नाक बोले और वह बाहर से भी सुनायी पड़े। इसलिए वे उसमें दिन भर तेल लगायें और कसरत करें। उनको देखकर वह कहावत याद आती थी कि ‘बैठा बनिया क्या करे, इस कोठे का धान उस कोठे करे।’ कहने का मतलब यह है कि सर्वथा कर्म त्याग करके रहा नहीं जाता। इसलिए भी कर्म करना चाहिए और व्यवस्थित रूप में कर्म करना चाहिए।

कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैगुणैः। [1]

अब चौथी बात लो- सबके शरीर में एक प्रकृति होती है। प्रकृति के अनुसार गुण प्रकट होते हैं और सबको कर्म करने के लिए मजबूर कर देते हैं। शरीरधारी मनुष्य कर्म करने के लिए मजबूर है। इसलिए भी मनुष्य को निषिद्ध कर्म नहीं करना चाहिए, विहित कर्म करना चाहिए। कर्म में एक मर्यादा बना लेनी चाहिए, अमर्यादित कर्म नहीं करना चाहिए।

अब बताते हैं कि सबकी जो आत्मा है- आत्मा माने शरीर है, यह कर्म और ज्ञान दोनों का मिश्रण है। शरीर न केवल कर्म है और न केवल ज्ञान है। इसको चाहे अभ्यास कह लो या ग्रंथि कहलो, पर ग्रंथि में दोनों होगा कि नहीं होगा? बिल्कुल वेदान्त की बात है यह। ग्रंथि तो है। आओ इस शरीर को रोक दिया जाये कि कर्म नहीं करेंगे। पर जब शरीर को कर्म करने से रोक देगे तो मन कर्म करने लगेगा। मन कर्म करने लगेगा तो क्या कर्म करेगा? वही, जो पहले देखा- सुना है, उसी का स्मरण करेगा। मन इन्द्रियों के द्वारा तो उसी का स्मरण करेगा। मन इन्द्रियों के द्वारा तो अज्ञात का भी ज्ञान प्राप्त कर सकता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (5)

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गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती
क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. पहला अध्याय 1
2. दूसरा अध्याय 26
3. तीसरा अध्याय 149
4. चौथा अध्याय 204
5. पाँचवाँ अध्याय 256
6. छठवाँ अध्याय 299
7. सातवाँ अध्याय 350
8. आठवाँ अध्याय 384
9. नववाँ अध्याय 415
10. दसवाँ अध्याय 465
11. ग्यारहवाँ अध्याय 487
12. बारहवाँ अध्याय 505
13. तेरहवाँ अध्याय 531
14. चौदहवाँ अध्याय 563
15. पंद्रहवाँ अध्याय 587
16. सोलहवाँ अध्याय 606
17. सत्रहवाँ अध्याय 628
18. अठारहवाँ अध्याय 651
अंतिम पृष्ठ 723

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