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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
द्वितीय अध्यायइसलिए जैसे सटाने में विक्षेप है, वैसे ही हटाने में भी विक्षेप हैं। काम के पीछे दौड़ो तो जितना दौड़ोगे, उतना ही वह दूर हटता जायेगा। वह तो तुम्हारे हृदय में बैठे हुए आत्माराम की परछाई है, जो बाहर दिखती है। अगर तुम उसकी ओर मुँह करके दौड़ोगे तो जितना दौड़ोगे, वह उतना ही दूर भागेगा। विहाय कामान् य: सर्वान् पुमांश्चरति नि:स्पृह:। ‘पुमांश्चरति निःस्पृहः’- इसका अर्थ है कि बैठा हुआ नहीं है, चलता हुआ है। समाधिवाले से पूछना कि ‘चरति’ का क्या अर्थ है। वे कहेंगे कि समाधि चरति है? वेद की आज्ञा है कि ‘चरैवेति चरैवेति’- चलो-चलो, चले चलो। आगे बढ़े चलो। ‘चरन् वै मधु विन्दति।’ [2] चलने वाला ही मधु को प्राप्त करता है। हमें एक महात्मा ने संन्यासी के कुछ लक्षण बताये थे। एक लक्षण तो यह बताया था कि किसी स्थान विशेष में संन्यासी की आसक्ति नहीं होनी चाहिए। हर बार हमें वही कुटिया मिलनी चाहिए- यह गृहस्थ का लक्षण है, संन्यासी का लक्षण नहीं है। दूसरा लक्षण यह बताया था कि संन्यासी की किसी व्यक्ति-विशेष में आसक्ति नहीं होनी चाहिए कि यह आदमी हमारे पास ही रहे। वहाँ तो दोनों बँधेंगे; संन्यासी भी बँधेगा और वह- जिससे आसक्ति करेगा, भी बँधेगा। तीसरा लक्षण यह बताया था कि संन्यासी की किसी वस्तु-विशेष में आसक्ति नहीं होनी चाहिए। जब तक हम दूध नहीं पीयेंगे, तब तक टट्टी ही नहीं उतरेगी- यदि ऐसी स्थिति है, तब तो संन्यासी मर गया, सेर भर दूध के लिए! उसको तो जहाँ दूध मिलेगा, उसी बानिये की जेब में रहना पड़ेगा, जिससे कि वह उसे सेरभर दूध रोजाना पिलाता रहे। तो स्थान, व्यक्ति और वस्तु- तीनों में संन्यासी की आसक्ति न हो। उसकी अन्तर्दृष्टि प्रदीप्त रहे, प्रज्वलित रहे। स्थान, व्यक्ति और वस्तु बाधित होते चलें; बस! ‘पुमांश्चरति निःस्पृहः विहाय कामान् यः सर्वान्’- बेफिक्र होकर घूमो, जो नहीं मिला, उसके लिए कामना मत करो। अप्राप्त की प्राप्ति की कामना मत करो और जो प्राप्त हो गया है, वह बना रहे- इसकी स्पृहा मत करो। कोई आ गया तो बड़ा प्रेम है और जाने का मन हो तो जाये। किसी को आइये, जाइये, रहिये- यह सब करने की जरूरत नहीं है। तुम आओ अथवा जाओ- इसमें मस्तराम होकर बैठे हैं बाबा!
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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