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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
प्रथम अध्यायदुर्योधन आगे कहता है सबलोग अपने-अपने स्थान पर, मोर्चे पर खड़े हो गये हैं। अब आपका कर्तव्य है कि सेनापति की रक्षा करें। आप सब भीष्म की ही रक्षा करें। एक विनोदी पुरुष ने ऐसी टीका की है कि दुर्योधन के मन में यह बात थी कि भीष्मपितामह सेनापति तो बने हैं, लेकिन ये कहीं कुछ गड़बड़ न कर दें। इसलिए वह बोला कि आपलोग इनको घेरकर रखना। भीष्म के ऊपर हमारा जितना विश्वास है, उससे ज्यादा विश्वास आप लोगों पर है। दुर्योधन मतलबी है और मतलबी लोग जिससे बात करते हैं, उसी के ढंग की बात करते हैं। अब भीष्मपितामह ने समझा कि ओहो, हम हो गये रक्ष्य और सब हमारे रक्षक हो गये। इसलिए दुर्योधन की बात का आदर करते हुए कुरु-वृद्ध-पितामह भीष्म ने सिंहनाद करके शंखनाद किया। यहाँ ‘शंख’ का अर्थ देखो- ‘शं’ माने ‘खं’ माने छिद्र। ‘शं खं यत्र’ अर्थात् जिसके छिद्र में शांति है। अब तो ‘सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्’- शंख बजा और इतना भयंकर बजा कि दूसरे बाजों को बजाने की जरूरत ही नहीं पड़ी। दूसरे बाजे शंख ध्वनि की चोट से ही बजने शुरू हो गये। ‘अभ्यहन्यन्त’ यहाँ कर्म ही कर्ता हो गया। जिन बाजों को बजाना चाहिए था, वे सब के सब बिना बजाये ही बजने लगे। बड़ा भारी शब्द हुआ। देखो, युद्ध छेड़ा गया कौरवों की ओर से, युद्ध की घोषणा हुई कौरवों की ओर से। आप इसमें कुछ उलटापन देखते हैं कि नहीं? राज्य छिना हुआ था पाण्डवों का, उस पर कब्जा कर रखा था कौरवों ने। यदि अपना राज्य वापिस कराना था, लौटाना था तो पाण्डवों की ओर से पहले शंख बजना चाहिए कि अब हम अपना राज्य, जो तुम्हारे कब्जे में है, उसे लौटाने के लिए युद्ध प्रारम्भ करते हैं। परंतु कौरवों को त्वरा थी। वे समझते थे कि जो पहले आक्रमण कर देगा, वह विजयी होगा। इसलिए पहले उन्होंने ही युद्ध छेड़ दिया। महाभारत को जब आप बहुत ढूढ़ेंगे तब उसमें आपको दुर्योधन के सारथि का नाम मिलेगा। महाभारत में सारथी का नाम है तो सही, पर बहुत ढूँढ़ने पर ही मिलेगा। लेकिन अर्जुन के सारथि को देखिये-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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