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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
द्वितीय अध्यायएक बात मैं आपको सुनाता हूँ। मैं एक बड़े सेठ की सेठानी के साथ कहीं जा रहा था। मार्ग में चार-छः गेरुआ वेषधारी साधु किसी दुकान पर चाट खा रहे थे, चाय पी रहे थे। उनको देखकर मेरे मुँह से निकल गया कि इन्हीं को खड़िया पलटन कहते हैं। सेठानी ने कहा कि महाराज हम तो इन्हीं लोगों को देखकर हाथ जोड़ते हैं और सिर झुका लेते हैं। गेरुआ कपड़ा देखकर हमें एक बार सिर झुकाने का मौका तो मिलता है! वे कैसे हैं, यह तो वे जानें, पर हमें इन्हें देखकर हाथ जोड़ने और सिर झुकाने का मौका मिल जाता है। यह सुनकर मेरे ऊपर तो सौ घड़े पानी पड़ गया; क्योंकि मेरी अक्ल से ऊँची सेठानी की अक्ल निकली। तो जो सफेदपोश लोग यह समझते हैं कि उनके बराबर कोई नहीं है, वे अभिमान में डूबे-डूबे फिरते हैं और ईश्वर से थोड़ दूर ही रहते हैं। उनको समझना चाहिए कि पता नहीं किस रूप में कौन महात्मा है। जो भगवान् मछली होकर आता है, कछुआ होकर आता है, सूअर बनने में जिसको शर्म नहीं लगी, वह भगवान् क्या झूठ-मूठ का गेरुआ वस्त्र पहनकर नहीं आ सकता? इसलिए अपना अभिमान टूटना चाहिए और हृदय में श्रद्धा पैदा होनी चाहिए। बिना भावना के शान्ति नहीं मिलती। यह नहीं कि सत्य सबको करामलकवत् हो जायेगा और सब सत्य को देख लेंगे। भावना पाक नहीं है, भावना साधन है। भावना के बिना शान्ति नहीं मिलती। एक दिन एक महात्मा के सामने कोई बात हुई, तो उनके शिष्यते मुझसे कह दिया कि आप तो श्रद्धा की बात करते हैं। मैं तो चुप रहा, पर वे महात्मा बोले कि कोई भाई, तुम्हें यह किसने बता दिया कि श्रद्धा करना पाप है? अरे, श्रद्धा तो ऐसी वस्तु है कि वह जिसके हृदय में आती है, उसका हृदय पवित्र हो जाता है। पापी पुण्यात्मा बन जाता है। व्यास भगवान् ने लिखा है कि जैसे माँ अपने बच्चे की रक्षा करती है, वैसे श्रद्धा श्रद्धालु की रक्षा करती है [1] ‘अशान्तस्य कुतः सुखम्’- जिसके हृदय में शान्ति नहीं है, उसको सुख कहाँ से मिलेगा? ‘धावतो ह्यर्थार्जितः’- यहाँ जाने से चार पैसे मिलेंगे। इस प्रकार कमाई करने के ले लोग यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ दौड़ रहे हैं। अरे भाई, पैसे में कहाँ सुख है? हम जानते हैं ऐसे पैसे वालों को, जिन्हें रात को नींद नहीं आती। वे गोलियाँ खा-खाकर सोने की चेष्टा करते हैं। इसलिए पैसे में सुख नहीं है। शान्ति में सुख है और शान्ति भावना से प्राप्त होती है तथा भावना युक्त होने से प्राप्त होती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (व्यास भाष्य 1.20)।
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