गीता रस रत्नाकर -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 124

गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज

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द्वितीय अध्याय

अब देखो, ‘इन्द्रियार्थ’ क्या है? यह पकड़ो, मत खाओ, यह सुनो, यह देखो- अरे बाबा, जरा समेटकर देखो कि तुम्हारी इन्द्रियाँ भी तुम्हारे वश में हैं कि नहीं? जो अपनी इन्द्रियों को समेट सकता है, उसकी बुद्धि पर हम विश्वास कर सकते हैं, किन्तु जो इन्द्रियों को समेट नहीं सकता, उस पर विश्वास नहीं होगा।

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः[1]

अब बोले कि आओ, निराहार हो जायँ, छोड़ दें आहार-विहार। नहीं भाई, आहार-विहार छोड़ देने से काम नहीं बनता है। ठीक है आप खाना छोड़ दोगे तो रोटी-दाल आपके मुँह में नहीं घुसेगी और वह बाहर ही रह जायेगी। लेकिन कहो कि रोटी-दाल छोड़ने से राग मिट जायेगा, तो वह नहीं मिटेगा। इन्द्रियों का स्वभाव और विषयों का स्वभाव, ये दोनों केवल आहार-परित्याग से नहीं छूट सकते।

देखो, कल है एकादशी। मान लो कि आज किसी ने कहा कि भाई, कल तो व्रत रहना है, इसलिए आज शाम को जरा हलवा-पूरी बन जाये, तो कल व्रत करने में सुबिस्ता रहेगा। कल फलाहार भी अच्छा बनना चाहिए, आलू का तो हलवा बनना चाहिए और कूटू की पूरी बननी चाहिए। अब बोलो की वह एकादशी हुई कि द्वादशी? एकादशी माने निराहार तो नहीं हुआ, महाहार हो गया।

इसलिए, आहार का परित्याग कर देने मात्र से केवल विषय जाते हैं, उनका राग नहीं जाता है। राग तो तब जायेगा, जब ‘परं दृष्ट्वा’- सबसे तो परे है- परात्पर जो तत्व है, आम तत्व है, उसका दर्शन हो। उसी का दर्शन होने से राग की निवृत्ति हो जायेगी।

देखो, बौद्ध लोग प्रपंच को निःस्वभाव होने के कारण शून्य मानते हैं, प्रपञ्च स्वयं में कोई स्वभाव नहीं है, इसलिए मिथ्या है। वेदान्ती मानते हैं कि अधिष्ठान के ज्ञान से यह मिथ्या है, स्वयं निःस्वभाव होने से मिथ्या नहीं है। यह तो इसका एक स्वभाव है। अधिष्ठान- ज्ञान से इसके स्वभाव का बोध होता है, केवल इसकी निःस्वभावता के ज्ञान से इसका बोध नहीं होता। सर्प दिख रहा है, वह निःस्वभाव है; सर्प में सर्पता नहीं है, ठीक है। क्या इतने से काम बन गया? नहीं-नहीं, सर्प को निःस्वभाव समझोगे तो माला पैदा हो जायेगी। माला को निःस्वभाव समझोगे, तो भूछिद्र पैदा हो जायेगा। भूछिद्र को निःस्वभाव समझोगे, तो दंड पैदा हो जायेगा। इस प्रकार परंपरा बढ़ती जायेगी। किन्तु यदि रज्जुज्ञान हो जायेगा, तो सर्प, दंड, धारा, छिद्र माला- सबकी निःस्वभावता का ज्ञान हो जायेगा। इसलिए वेदान्ती भी जगत् को मिथ्या कहते हैं और बुद्धि भी जगत् को मिथ्या कहते हैं। परंतु जगत् को निःस्वभाव होने के कारण मिथ्या मानते हैं और हम अधिष्ठान-ज्ञान को, अध्यस्त को मिथ्या मानते हैं- यह दोनों में अंतर है। इस परम सत्य का ज्ञान होने पर ही निवृत्ति होगी


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (2.59)

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क्रम संख्या अध्याय पृष्ठ संख्या
1. पहला अध्याय 1
2. दूसरा अध्याय 26
3. तीसरा अध्याय 149
4. चौथा अध्याय 204
5. पाँचवाँ अध्याय 256
6. छठवाँ अध्याय 299
7. सातवाँ अध्याय 350
8. आठवाँ अध्याय 384
9. नववाँ अध्याय 415
10. दसवाँ अध्याय 465
11. ग्यारहवाँ अध्याय 487
12. बारहवाँ अध्याय 505
13. तेरहवाँ अध्याय 531
14. चौदहवाँ अध्याय 563
15. पंद्रहवाँ अध्याय 587
16. सोलहवाँ अध्याय 606
17. सत्रहवाँ अध्याय 628
18. अठारहवाँ अध्याय 651
अंतिम पृष्ठ 723

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