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गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
द्वितीय अध्यायहमारी जान-पहचान के एक ब्रह्मचारी थे। उन्होंने अपने पास बीस महात्माओं की तसबीरें रख छोड़ी थीं। मैंने पूछा कि ब्रह्मचारी जी, यह सब क्या है? बोले कि ये सब हमारे गुरु हैं। मैंने कहा कि अचछा, दत्तात्रेय के चौबीस गुरु थे, आपके तो अभी बीस ही हैं! वे बोले कि जब मैं ध्यान करने बैठता हूँ, तब ये बीसों आकर सामने खड़ो हो जाते हैं। मैं सोचता हूँ कि कहीं कोई नाराज न हो जाये, इसलिए मैंने सबके चित्र रख लिए हैं। लेकिन मैंने इतने गुरु बनाये हैं कि अब समाधि तो होती नहीं, विक्षेप ही होता है। तो श्रुतिविप्रतिपन्ना- तरह-तरह की बात सुनते-सुनते, बुद्धि विप्रतिपन्न हो गयी है। श्रुति सुनी, अद्वैत की श्रुति सुनी। लेकिन मीमांसा तो की नहीं, समन्वय किया नहीं, तत्तुसमन्वयात् [1] पढ़ा नहीं, ‘गतिसामान्यात्’[2]का ज्ञान नहीं और बुद्धि किसी निश्चय पर पहुँची नहीं, डाँवाडोल हो गयी। अरे, पहले एक बात सुनकर उसका साक्षात्कार तो कर लो, अज्ञान को निवृत्त तो कर लो। तरह-तरह की बातों को सुनते तो हैं कान, लेकिन ये कुछ पकड़ते नहीं और इनके रास्ते से घुसकर बुद्धि विप्रतिपन्न हो जाती है। कोई प्रतिपत्ति ही नहीं होती, कुछ ग्रहण ही नहीं होता और ग्रहण की सामर्थ्य ही खो जाती है। इसलिए बुद्धि जब निश्चल होगी- ‘स्थास्यति निश्चला’ और समाधि में स्थित होगी, तब परमात्मा का अनुभव होगा. समाधि माने परमात्मा। ‘सम्यक् आधीयते अस्मिन् सर्वम् इति समाधिः।’ समाधि शब्द संस्कृत भाषा में पुल्लिंग है। आधि, व्याधि, समाधि, उपाधि- ये सब शब्द पुल्लिंग हैं। जब बुद्धि समाधि रूप परमात्मा में अचल हो जाती है, तब वह अपने आश्रय को छोड़कर विषय की ओर नहीं भागती, विषय का मूल्यांकन नहीं करती। देखो, बुद्धि कहीं जाती-आती नहीं है। यह कहना कि हमारा मन तो कलकत्ते चला गया- ठीक नहीं है। अरे, तुम्हारा मन तो तुम्हारे कलेजे में है, वह कलकत्ता कहाँ गया? तब क्या हुआ? क्या कलकत्ता तुम्हारे मन में आ गया? अरे, वह तो वहीं है, जहाँ का तहाँ है। कलकत्ता कलकत्ता में है और तुम्हारा मन तुम्हारे पास है। फिर क्या हुआ? हुआ कुछ नहीं है, बुद्धि कल्पित कलक्ताकार हो गयी है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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