विषय सूची
गीता रस रत्नाकर -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
द्वितीय अध्यायकृपण माने मूर्ख, कृपण माने अज्ञानी। कौन सा अज्ञानी? जो अपने को नहीं जानता। वह अनात्मा को पकड़कर बैठा है। उसने मुट्ठी बाँध ली है। किसकी? अनात्मा की। कृपण माने मक्खी चूस। कृपण माने सूमड़ा। कृपण माने जो अनात्मा को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। जिसको बार-बार कहते हैं कि भाई, नेति-नेति; छोड़-छोड़! लेकिन जो कहता है कि नहीं, हम तो पकड़ेंगे, उसी का नाम है कृपण। एक बार हमलोग वृन्दावन में हाथी बाबा के साथ बैठे थे। वहाँ एक व्यापारी सज्जन आये और हमसे पूछने लगे कि राम-राम कहने से क्या फायदा है जी? हाथ बाबा बड़े बूढ़े थे। फक्कड़ी भाषा में बोलते थे। मैं तो रहा चुप और वे बोले कि यह साला बनिया है क्या? बनिया माने कोई जाति नहीं; जो हर बात में फायदा सोचे कि हम बाबाजी को एक रुपया देंगे, तो हमको दस रुपये का फायदा होगा; वह बनिया है। एक हमारे मित्र हैं। उनके घर एक साधु आये तो उन्होंने उनको एक रुपया दिया। उस दिन उनके व्यापार में एक पैसे की भी आमदनी नहीं हुई. इसलिए दूसरी बार जब वे साधु आये, तब उन्होंने नहीं दिया. एक दिन मैं गया उनके घर में, तो हजारों रुपये की आमदनी उनको हो गयी। उसके बाद तो समझो कि हमारा हिस्सा ही बन गया उनकी आमदनी में। देखो, यह जो मैं दृष्टान्त देता हूँ, उसको आप किसी व्यक्ति-विशेष पर मत लेना। यह मत समझना कि ये हमारे या अमुक के ऊपर आक्षेप करते हैं। मैं अपना नहीं नाम ले लूँ, तो उसको भी सच मत समझना। वहाँ तो तात्पर्य- दृष्टि से ही दृष्टान्त, अर्थ समझना चाहिए। बुद्धिमान् कृपण नहीं होता और बुद्धिमान् ‘फलहेतु’ नहीं होता। यह बुद्धि का लक्षण है। अब भगवान् आगे क्या कहते हैं, यह देखो-
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 50
संबंधित लेख
क्रम संख्या | अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज