गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 96

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

चौथा अध्याय

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अपाने जुहृति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे ।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणा: ॥29॥
अपरे नियताहार: प्राणान्प्राणेषु जुहृति ।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषा: ॥30॥

दूसरे कितने ही प्राणायाम के परायण हुए योगी लोग अपान में प्राण का (पूरक करके) प्राण और अपान की गति रोक कर (कुम्भक करके), फिर प्राण में अपान का हवन (रेचक) करते हैं; तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करने वाले प्राणों का प्राणों में हवन किया करते हैं। ये सभी (साधक) यज्ञों द्वारा पापों का नाश करने वाले और यज्ञों को जानने वाले हैं।

व्याख्या- पूरक, कुम्भक और रेचकपूर्वक प्राणायाम करना ‘प्राणायामरूप यज्ञ’ है। प्राण-अपान को अपने-अपने स्थान पर रोक देना ‘स्तम्भवृत्ति (चतुर्थ) प्राणायाम रूप यज्ञ’ है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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