गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 95

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

चौथा अध्याय

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सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुहृति ज्ञानदीपिते ॥27॥

अन्य योगी लोग सम्पूर्ण इन्द्रियों की क्रियाओं को और प्राणों की क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्म संयमयोग (समाधियोग) रूप में अग्नि में हवन किया करते हैं।

व्याख्या- मन-बुद्धि वाला सम्पूर्ण इन्द्रियों और प्राणों की क्रियाओं को रोक कर समाधि में स्थित हो जाना ‘समाधिरूप यज्ञ’ है।

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतय: संशितव्रता: ॥28॥

दूसरे कितने ही तीक्ष्ण व्रत करने वाले प्रयत्नशील साधक द्रव्यमय यज्ञ करने वाले हैं और कितने ही तपोयज्ञ करने वाले हैं और दूसरे कितने ही योगयज्ञ करने वाले हैं तथा कितने ही स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करने वाले हैं।

व्याख्या- मिली हुई वस्तुओं को निष्कामभाव से दूसरों की सेवा में लगाना ‘द्रव्ययज्ञ’ है। स्वधर्मपालन मे आने वाली कठिनाइयों को प्रसन्नता से सह लेना ‘तपोयज्ञ’ है। कर्मों की सिद्धि-असिद्धि में तथा अनुकूल या प्रतिकूल फल की प्राप्ति में सम रहना ‘योगयज्ञ’ है। सत-शास्त्रों का अध्ययन-मनन, नामजप आदि करना ‘स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ’ है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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