गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास
चौथा अध्याय
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे । व्याख्या- मन-बुद्धि वाला सम्पूर्ण इन्द्रियों और प्राणों की क्रियाओं को रोक कर समाधि में स्थित हो जाना ‘समाधिरूप यज्ञ’ है। द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे । व्याख्या- मिली हुई वस्तुओं को निष्कामभाव से दूसरों की सेवा में लगाना ‘द्रव्ययज्ञ’ है। स्वधर्मपालन मे आने वाली कठिनाइयों को प्रसन्नता से सह लेना ‘तपोयज्ञ’ है। कर्मों की सिद्धि-असिद्धि में तथा अनुकूल या प्रतिकूल फल की प्राप्ति में सम रहना ‘योगयज्ञ’ है। सत-शास्त्रों का अध्ययन-मनन, नामजप आदि करना ‘स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ’ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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