गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 97

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

चौथा अध्याय

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यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्मा सनातनम् ।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्य: कुरुसत्तम ॥31॥

हे कुरुवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं। यज्ञ न करने वाले मनुष्य के लिये यह मनुष्य लोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक कैसे सुखदायक होगा?

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्माणो मुखे ।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥32॥

इस प्रकार और भी बहुत तरह के यज्ञ वेद की वाणी में विस्तार से कहे गये हैं। उन सब यज्ञों को तू कर्मजन्य जान। इस प्रकार जानकर (यज्ञ करने से) तू कर्म बन्धन से मुक्त हो जायगा।

व्याख्या- जिसने कर्म करते हुए भी उससे निर्लिप्त (कर्तृत्व-फलेच्छारहित) रहने की विद्या को जान लिया है, वह कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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