गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 89

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

चौथा अध्याय

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एवं ज्ञात्वा कृतं पूर्वैरपि मुमुक्षुभि: ।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वै: पूर्वतरं कृतम् ॥15॥

पूर्वकाल के मुमुक्षुओं ने भी इस प्रकार जान कर कर्म किये हैं, इसलिये तू भी पूर्वजों के द्वारा सदा से किये जाने वाले कर्मों को ही (उन्हीं की तरह) कर।

व्याख्या- भगवान् का मत है कि मुमुक्षा जाग्रत होने पर भी कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत कर्तृत्वाभिमान तथा फलासक्ति का त्याग करके कर्तव्य कर्म करते रहना चाहिये। कर्म करने से बन्धन होता है, पर कर्मयोग से मोक्ष (विश्राम) प्राप्त होता है।

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता: ।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥16॥

कर्म क्या है और अकर्म क्या है- इस प्रकार इस विषय में विद्वान भी मोहित हो जाते हैं। अतः वह कर्म-तत्त्व मैं तुझे भलीभाँति कहूँगा जिसको जानकर तू अशुभ (संसार-बन्धन) से मुक्त हो जायगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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