गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 88

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

चौथा अध्याय

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चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश: ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥13॥

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥14॥

मेरे द्वारा गुणों और कर्मों के विभागपूर्वक चारों वर्णों की रचना की गयी है। उस (सृष्टि-रचना आदि) का कर्मा होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू अकर्ता जान! कारण कि कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है, इसिलेय मुझे कर्म लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता।

व्याख्या- चारों वर्णों की रचना मेरे द्वारा की गयी है-इस भगवद्वचन से सिद्ध होता है कि वर्ण जन्म से होता है, कर्म से नहीं। कर्म से तो वर्ण की रक्षा होती है।

जैसे सृष्टि-रचनारूप कर्म करने पर भी भगवान अकर्ता ही रहते हैं, ऐसे ही भगवान का अंश जीव भक कर्म करते हुए अकर्ता ही रहता है- ‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’[1]। परन्तु जीव अहम से सम्बन्ध जोड़कर अज्ञानवश अपने को कर्ता मान लेता है-‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 13।31)
  2. (गीता 3।27)

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