गीता प्रबोधनी -रामसुखदास पृ. 87

गीता प्रबोधनी -स्वामी रामसुखदास

चौथा अध्याय

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ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: ॥11॥

हे पृथानन्दन! जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे मार्ग का अनुसरण करते हैं।

व्याख्या- यद्यपि सब कुछ परमात्मा ही हैं- ‘वासुदेवः सर्वम्’[1], तथापि मनुष्य जिस भाव से देखता है, भगवान भी उसके सामने उसी रूप से प्रकट हो जाते हैं-
जिन्हें कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी।।

[2]जीव जगत को धारण करता है- ‘ययेदं धार्यते जगत्’[3]तो भगवान् जगद् रूप से प्रकट हो जाते हैं। नास्तिक भगवान् को नहीं मानता तो भगवान् उसके सामने ‘नहीं’ -रूप से प्रकट हो जाते हैं। चोर भगवान् की मूर्ति में भगवान् को न देखकर पत्थर, स्वर्ण आदि को देखता है तो भगवान् उसके लिये पत्थर, स्वर्ण आदि के रूप में प्रकट हो जाते हैं।



काङ्क्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता: ।

क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥12॥



कर्मो की सिद्धि (फल) चाहने वाले मनुष्य देवताओं की उपासना किया करते हैं; क्योंकि इस मनुष्यलोक में कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि जल्दी मिल जाती है।

व्याख्या- मनुष्यलोक में सकाम कर्मों से होने वाली सिद्धि शीघ्र प्राप्त होती है; परन्तु परिणाम में वह बन्धन कारक होती है। जैसे, एलोपैथिक दवा जल्दी असर करती है, पर परिणाम में वह शरीर के लिये हानिकारक होती है। परन्तु आयुर्वेदिक दवा देर से असर करती है, पर परिणाम में वह लाभदायक होती है। जनकादि महापुरुषों ने निष्काम कर्म (कर्मयोग) से संसिद्धि (सम्यक सिद्धि अर्थात मुक्ति) प्राप्त की थी- ‘कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः’[4]। सकाम कर्मों से होने वाली सिद्धि नाशवान होती है, और निष्काम कर्मों से होने वाली सिद्धि अविनाशी होती है।

निष्काम कर्म अर्थात कर्मयोग से कर्मजन्य सिद्धि की इच्छा मिटती है। जन्य वस्तु से मुक्ति नहीं होती।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 7।19)
  2. (मानस, बाल. 241।2)
  3. (गीता 7।5)
  4. (गीता 3।20)

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